वेदना-संवेदना के बीहड़ जंगलों को पार करती हुई बड़ी खामोशी से तूलिका सृजन पथ पर अग्रसर हो अपनी छाप छोड़ती चली जाती है जो मूक होते हुए भी बहुत कुछ कहती है । उसकी यह झंकार कभी शब्दों में ढलती है तो कभी लघुकथा का रूप लेती है । लघुकथा पलभर को ऐसा झकझोर कर रख देती है कि शुरू हो जाता है मानस मंथन।

बुधवार, 17 जनवरी 2018

लघुकथा

देश की माटी
                *सुधा भार्गव  

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"यार तेरी सारी ज़िंदगी विदेश में बीत गई। एक बार भारत छोड़ा तो पीछे मुड़कर यह भी न देखा कि तेरे माँ-बाप कितने अकेले पड़ गए। तू तो उनके क्रियाकर्म में भी न गया। अब अचानक इतना देश -प्रेम कहाँ से  जाग पड़ा कि घड़ी-घड़ी इंडिया भाग रहा है। "
'कैसे जाता ?मेरे पास उस समय इतना पैसा कहाँ था कि आ-जा सकूँ। एक-एक पाई अपने दोनों बच्चों के लिए जमा कर रहा था। "
"कहाँ रहे तेरे बच्चे भी  अपने । वे भी तो तुझे ठेंगा दिखाकर चले गए । अब समझ रहा होगा अकेलेपन का दर्द।" 
"तू ठीक कहा रहा है। मैंने जैसा बोया वैसा काट भी रहा हूँ। माँ-बाप की ज़िंदगी में तो रस न घोल सका,पर अपनी ज़िंदगी का रस निचुड़ने से तो बचा सकता हूँ।"
:समझ नहीं आता ,अब तेरे लिए भारत में क्या बचा  है। दोस्त,नाते-रिश्तेदार,पास-पड़ोसियों का बसेरा न जाने कहाँ होगा?"
"गाँव में अब भी बहुत कुछ बचा है मेरे दोस्त !हरे-भरे खलिहान,रँभाती गायों का झुंड,गुड़ के साथ मक्की-बाजरे की मीठी रोटी ...। "
"सपने देख रहा है क्या?पिछले 40 वर्षों में वहाँ भी बहुत कुछ बदल गया है। शहरी सभ्यता हरे-भरे मैदान और खेतों को निगलने में लगी है।"
"बदल जाने दे सब कुछ...... । उनकी यादों से तो मैं जुड़ा हूँ और जुड़ा हुआ हूँ अपने देशवासियों से । इस जुड़न की अनुभूति क्या कम सुखद है। "
"लेकिन तेरे बच्चे?उनसे तो तू बहुत दूर हो  जाएगा। यहाँ रहते उम्मीद तो रहती है कि शायद आज आ जाएँ। वहाँ जाने से तो आशा का यह चिराग भी बुझ जाएगा।" 
"लेकिन यह संतोष तो रहेगा  कि मेरे जीवन का सूर्यास्त अपने देश में ही हो रहा है और उसकी सौंधी-सौंधी माटी में मेरा शरीर मिल जाएगा। " 

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