मीठी छुरी/ सुधा भार्गव
उस दिन मेरी सहेली दिल्ली के भोगल बाजार में सब्जी खरीदते हुये मिल गई।उसके चेहरे पर उदासी की चादर तनी देखकर मैं व्याकुल हो उठीI मैंने स्नेहवश उसका हाथ अपने हाथ में लिया। आत्मीयता के स्पर्श से उसकी आंखें झरझरा उठीं।उसने मेरा हाथ न छोड़ा। अपनी ओर खींचतीं बोली –
-मेरे घर चल –बस थोड़ी देर को Iआग्रह में छिपी वेदना को महसूस कर उसकी ओर खिंचती चली गई।
गर्मी अपनी चरम सीमा पर --! गजब का कहर ढा रही थी । उसके घर में घुसते ही लगा ,तपते ओवन में कदम पड़ गये हों ।
--बड़ी गर्मी है—यहाँ एक एयरकंडीशन लगवा ले।
--मैं घर की देखभाल करने वाली हूँ,मालकिन नहीं!चल बैडरूम में चलते हैं, वहाँ ए. सी. लगा हुआ है।
--क्या बात करती---- है !अब तो पैसे की भी कमी नहीं!उम्र के इस ढलते सूरज में ज्यादा माया बचाकर क्या करना ।
कुछ देर को मौन हम दोनों के बीच पसर गया ।बेमन से व्यथा उमड़-घुमड़ पड़ी---
--कल कहा था कुछ रुपये दे दो ,ताकि पसन्द का सामान खरीद लाऊँ। बहुत देर तक तो मैनें इन्तजार किया कि स्वयं खुशी से मेरे हाथ में कुछ रखेंगे ।गिनगिनाकर जब लक्ष्मी को अपनी अलमारी में रखने लगे तो सुनाया भी—‘पहले घर की लक्ष्मी को तो प्रसन्न करो तब उसे बन्द करना।
-सब्र करो—यह सब तुम्हारा ही है------ मेरे मरने के बाद।पहले नाती-पोतों के नाम कुछ कर दूँ।बेटे-बेटियों को भी कुछ देकर जाना है ।मीठी आवाज में वे बोले।
इस मिठास ने मुझे चीर कर रख दिया।सहने की भी एक हद होती है ।काश!ऐसी कोई छुरी मेरे हाथ भी लग जाये। आखिर हूं तो मैं भी एक मानवी ही –।
-हताश न हो । जब इतना सब्र किया है तो थोड़ा और सही ।मैंने कहा I
-हाँ! हाँ !करूंगी—--। फिर----फिर अकेले ही अरमान पूरे करूंगी।कोई नहीं रोक पायेगा मुझे---देख लेना ! कोई नहीं--- रोक पायेगा।
वह बदहवास सी थी और मैं उसकी आन्तरिक पीड़ा में घुल चुकी थी।
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