वेदना-संवेदना के बीहड़ जंगलों को पार करती हुई बड़ी खामोशी से तूलिका सृजन पथ पर अग्रसर हो अपनी छाप छोड़ती चली जाती है जो मूक होते हुए भी बहुत कुछ कहती है । उसकी यह झंकार कभी शब्दों में ढलती है तो कभी लघुकथा का रूप लेती है । लघुकथा पलभर को ऐसा झकझोर कर रख देती है कि शुरू हो जाता है मानस मंथन।

शनिवार, 12 नवंबर 2011

लघुकथा



वात्सल्य के धागे /सुधा भार्गव


विलियम ने बड़ी आशा से  भारत की भूमि पर कदम रखे I चलते समय उसके भाई ने कहा था ---------
-भारत के गाँवों में जाना I वहाँ की गरीबी इंसान को समूचा निगल लेती है I ईश्वर ने चाहा तो किसी झोंपड़े के आगे तुम्हारी इच्छा जरूर पूरी हो जायेगी I
दो -तीन दिन से विलियम लगातार भटक रहा था I उसकी गोरी चमड़ी को देखकर ग्रामीण महिलायें कतराने लगतीं या दरवाजा बंद कर लेतीं I