वेदना-संवेदना के बीहड़ जंगलों को पार करती हुई बड़ी खामोशी से तूलिका सृजन पथ पर अग्रसर हो अपनी छाप छोड़ती चली जाती है जो मूक होते हुए भी बहुत कुछ कहती है । उसकी यह झंकार कभी शब्दों में ढलती है तो कभी लघुकथा का रूप लेती है । लघुकथा पलभर को ऐसा झकझोर कर रख देती है कि शुरू हो जाता है मानस मंथन।

सोमवार, 12 दिसंबर 2011

लघुकथा


परिवर्तन /सुधा भार्गव










रिटायर होते ही कर्नल साहब की सुख -सुविधा भरी जिन्दगी का अंत हो गया I नौकर -चाकर , खानसामा ,माली की भीड़ ऐसी छटी जैसे पतझड़ आते ही पत्ते तितर -बितर हो जाते हैं I

कर्नल साहब तो नई जिन्दगी के अनुरूप ढल गये मगर पत्नी निढाल हो गई I अतीत की ऐशो -आराम की जिन्दगी उसके लिए फूलों की सेज से कम नहीं थी I  मेहनत की जिन्दगी उसे रास नहीं
 आई और उसके दिमाग में समा गया --

मेरा पति मेरी देखभाल करने में सक्षम नहीं है और न ही विवाह के समय दिये वचनों को निबाहने में उसमें पहले जैसी तत्परता है I बौखलाई हुई सी दलदल में फंसती चली गई I

दुनिया वालों ने समझाया --परिवर्तन ही जीवन है ।
-हाँ ---ठीक कह रहे हो !माँ की आवाज  गहरी थी  I बेटे ने संतोष की साँस ली --चलो माँ समझ गई I

कुछ दिन बीते कि तलाक़ की आंधी चली I कर्नल साहब दूर छिटक कर जा पड़ेI
बच्चे रोये -गिड़गिड़ाये पर पत्थर से आँसू लुढ़ककर धरती में दफन हो गये I

इस अवसाद से बच्चे उभर भी नहीं पाए थे कि सुनने में आया --माँ ने अपने से १५ वर्ष बड़े एक
विदेशी से शादी कर ली है और तीसरी पत्नी बनकर अमेरिका जा रही है

-बेटा भागा -भागा आया I

-माँ  ----मैं जो सुन रहा हूँ ,क्या वह सच है !

-हाँ --I

-लेकिन क्यों ?

-तुम नहीं समझोगे I

-क्या नहीं समझूँगा !

-यही कि इस उम्र में समय गुजरने के लिए साथी की बहुत आवश्यकता होती है ।

-तब पापा को तलाक़ देने की क्या जरूरत आन पड़ी थी I

-जरूरत थी--- क्योंकि -----परिवर्तन ही जीवन है I


* * * * * * *

शनिवार, 12 नवंबर 2011

लघुकथा



वात्सल्य के धागे /सुधा भार्गव


विलियम ने बड़ी आशा से  भारत की भूमि पर कदम रखे I चलते समय उसके भाई ने कहा था ---------
-भारत के गाँवों में जाना I वहाँ की गरीबी इंसान को समूचा निगल लेती है I ईश्वर ने चाहा तो किसी झोंपड़े के आगे तुम्हारी इच्छा जरूर पूरी हो जायेगी I
दो -तीन दिन से विलियम लगातार भटक रहा था I उसकी गोरी चमड़ी को देखकर ग्रामीण महिलायें कतराने लगतीं या दरवाजा बंद कर लेतीं I

गुरुवार, 20 अक्टूबर 2011

लघुकथा





मीठी छुरी/ सुधा भार्गव

उस दिन मेरी सहेली दिल्ली के भोगल बाजार में सब्जी खरीदते हुये मिल गई।उसके चेहरे पर उदासी की चादर तनी देखकर मैं व्याकुल हो उठीI मैंने स्नेहवश उसका हाथ अपने हाथ में लिया। आत्मीयता के स्पर्श से उसकी आंखें झरझरा उठीं।उसने मेरा हाथ न छोड़ा। अपनी ओर खींचतीं बोली
-मेरे घर चल बस थोड़ी देर को Iआग्रह में छिपी वेदना को महसूस कर उसकी ओर खिंचती चली गई।

गर्मी अपनी चरम सीमा पर --! गजब का कहर ढा रही थी । उसके घर में घुसते ही लगा ,तपते ओवन में कदम पड़ गये हों ।
--बड़ी गर्मी हैयहाँ एक एयरकंडीशन लगवा ले।
--मैं घर की देखभाल करने वाली हूँ,मालकिन नहीं!चल बैडरूम में चलते हैं, वहाँ ए. सी. लगा हुआ है।
--क्या बात करती---- है !अब तो पैसे की भी कमी नहीं!उम्र के इस ढलते सूरज में ज्यादा माया बचाकर क्या करना ।

कुछ देर को मौन हम दोनों के बीच पसर गया ।बेमन से व्यथा उमड़-घुमड़ पड़ी---
--कल कहा था कुछ रुपये दे दो ,ताकि पसन्द का सामान खरीद लाऊँ। बहुत देर तक तो मैनें इन्तजार किया कि स्वयं खुशी से मेरे हाथ में कुछ रखेंगे ।गिनगिनाकर जब लक्ष्मी को अपनी अलमारी में रखने लगे तो सुनाया भी—‘पहले घर की लक्ष्मी को तो प्रसन्न करो तब उसे बन्द करना।
-सब्र करोयह सब तुम्हारा ही है------ मेरे मरने के बाद।पहले  नाती-पोतों के नाम कुछ कर दूँ।बेटे-बेटियों को भी कुछ देकर जाना है ।मीठी आवाज में वे बोले।

इस मिठास ने मुझे चीर कर रख दिया।सहने की भी एक हद होती है ।काश!ऐसी कोई छुरी मेरे हाथ भी लग जाये। आखिर हूं तो मैं भी एक मानवी ही
-हताश न हो । जब इतना सब्र किया है तो थोड़ा और सही ।मैंने कहा I
-हाँ! हाँ !करूंगी—--। फिर----फिर अकेले ही अरमान पूरे करूंगी।कोई नहीं रोक पायेगा मुझे---देख लेना ! कोई नहीं--- रोक पायेगा।
वह बदहवास सी थी और मैं उसकी आन्तरिक पीड़ा में घुल चुकी थी।

*  *  *  *  *


सोमवार, 29 अगस्त 2011

लघुकथा



सिसकती साँसें  /सुधा भार्गव




--तीन दिन से घर बैठा है ,स्कूल क्यों नहीं जाता। मास्टरनी ने कल भी बुलाबा भेजा था और आज भी।अरे इतनी अच्छी मास्टरनी तो ढूँढे से न मिले।
--हूं ---।
--क्या हूं --हूं किये जारहा है।
--मास्टरनी  इतनी अच्छी है तो एक काम कर अम्मा, तू चली जा।
--अरे करम जले !चली जाती-----चली जाती अगर मेरे समय मुझे स्कूल में घुसने देते ---अन्दर का दर्द झर -झर कर बहने लगा।


--तुझे कुछ पता तो है नहीं! स्कूल में पढ़ाई ही नहीं होती और भी बहुत से काम करने पड़े है ।बस रट लगा रखी  है --स्कूल जा --स्कूल जा ।
--एक आध काम करना पड़  गया तो क्या तू छोटा पड़ गया ।
-छोटा तो हूं ही और क्या छोटा होऊंगा।रोज स्कूल में पखाना साफ करना पड़े है । मेरे दोस्त झाडू लगावे हैं ।
--सफाई वालों को क्या मौत आ गई !
-मौत क्यों आने लगी --मेरे जैसे जिन्दा तो हैं। गोलू स्कूल में पहले नंबर आया --जाने है क्यों आया
हरदिन मास्टरनी के घर की सफाई करे है।


गेंदा की माँ चोट खाई नागिन की तरह पल में मास्टरनीजी के आगे फ़न उठायें खड़ी हो गई ----
-अरे गेंदा नहीं आया --।
-आना तो चाहता था मगर झाडू -बाड़ू उसके बसका रोग  नहीं।

-क्या कहा--- --!झाडू लगाना.मैला उठाना तो चमेलिया तेरा खानदानी पेशा है ।अपनी जड़ों से कटकर कोई खड़ा रह सकता है ?
-ऐ मास्टरनी जी ,  हम तो केवल मैला उठावे हैं।नहा धोकर सुथरे के सुथरे।लेकिन तुम जैसे पढ़े -लिखे अच्छाई की ओट  में हमेशा मैले ही रहते हो।


मिजाज  के गर्म मौसम से लपटें निकल रही थीं लेकिन  सामने का  लिपा पुता मुखौटा ज्यों की त्यों निर्लेप -नारायण की तरह बैठा था  |चेहरे पर कुटिल मुस्कान थी ,आँखें कह रही थीं ----छोटे हो झुक कर चलना ही होगा। हममें अब भी इतनी शक्ति है कि अपने मिजाज की लपटों में तुम  खुद झुलस जाओगे।


चमेलिया चुप थी मगर उसकी मुट्ठियाँ भिच गई थीं ----|

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सोमवार, 25 जुलाई 2011

लघुकथा- मैं---- नहीं


मैं चोर नहीं
/सुधा भार्गव
 



माँ की असमय मृत्यु ने गुलाल से उसका सुरक्षित गढ़ छीन लिया ।अब पाँच वर्ष का वह नन्हा सहमा -सहमा रहने लगा । रिश्तेदारों ने सलाह दी --दूसरी शादी कर लो। बच्चा नई माँ पाकर खिल उठेगा। दूसरी शादी हो गई।

गुलाल उसे माँ न कह सका  । कहने की कोशिश भी करता तो जीभ तालुये से चिपक जाती।पापा कबीर ने कुछ समय के लिए उसे होस्टल  पढ़ने भेज दिया --शायद समय उसके दिल के घाव को भर दे  और वह नई माँ का आँचल इच्छा से ओढ़ ले ।

दो वर्ष तो वह होस्टल में ठीक से रहा पर तीसरे वर्ष  घर बुला लिया गया ।बिना बच्चे के कबीर पापा का मन नहीं लग रहा था।                          
                                             गुलाल के आते ही उसके पापा बोले -
-बेटा अब तुम अपने घर आ गए हो ---सुनते ही मासूम का चेहरा चमक उठा ।
जो चहिये ले लेना या अपनी माँ से कह देना।
माँ शब्द सुनते ही उसकी चमक को अन्धेरे ने डस लिया ।

एक
दिन कबीर शाम की बजाय दोपहर को ही आफिस से घर  आ गए। किसी के रोने की आवाज सुनकर उनका दिल दहल उठ। अन्दर जा कर देखा --गुलाल कुर्सी पर बैठा है लेकिन उसके दोनों हाथ, दोनो पैर रस्सी से बंधे हैं।

पापा को देखते ही गुलाल बदहवास सा चिल्लाने लगा --पापा --पापा मैं चोर नहीं हूँ ।
मेरी रस्सी खोल दो ---मैं चोर नहीं --सच्ची -सच्ची कह रहा हूँ॥
--क्यों रे --झूठ बोलता है…दो दिन से बराबर चोरी कर रहा है।तेरी सजा यही है --न हिलेगा --न डुलेगा ।फिर  देखूं बिना पूछे कुछ कैसे उठाएगा ।नई माँ दहाड़ उठी |

पत्नी का ऐसा रौद्र रूप कबीर पहली बार देख रहे थे।अन्दर ही अन्दर सुलग उठे।तब भी अपने पर काबू रखते हुए पूछा -
-बेटा तुम्हें रस्सी से क्यों बाँधा ?
-पापा मैं चोर नहीं, बस लड्डुओं को देखकर खाने को मेरा जी चाहा सो खा लिए ।आप ने ही तो कहा था --यह घर मेरा है फिर लड्डू भी तो मेरे हुए --बोलो पापा--मैं ठीक कह रहा हूँ न ,मैं चोर तो नही। नादान कहते -कहते फफक पड़ा।

--चंद  दिनों में ही आपने इसे बिगाड़ कर रख दिया।इसका होस्टल में ही रहना ठीक है।कल ही इसे भेज  दीजिये।
-जरूर भेजूँगा पर इसे नहीं --तुम्हें भेजूँगा। जिस स्कूल में गुलाल पढ़ता  था उसमें शिक्षिका की जगह खाली है। तुम जैसे पढ़े  -लिखे और समझ दारों को ऐसा अवसर नहीं गवाँना चाहिए  और हाँ,--- रहने को जगह वहीं मिलेगी जहाँ गुलाल रहता था ।
आनंद ही आनंद !छुट्टियों में तुम यहाँ आ जाना या हम तुमसे मिलने वहीं पहुँच जायेंगे।

-आप तो अच्छा मजाक कर लेते हैं।मैं आपके बिना कैसे रह सकती हूं। फिर आपको भी  तो मेरी  याद आयेगी।
-याद तो आयेगी-- लेकिन गुलाल के बिना मैं रह सकता हूं तो तुम्हारे बिना भी रहना  पड़ेगा ।
-अपनी बात तो कह दी। मैं तो नहीं रह ----।
-कबीर ने उसकी बात काटते हुए कहा --
जब गुलाल रह सकता है मेरे बिना तो तुम भी आदत डाल लो मेरे बिना रहने की ।

पत्नी के चेहरे पर भय व आश्चर्य मिश्रित रेखायें उभर आईं | वात्सल्य  का झरना इतना सुखद था कि कबीर उसमें भीग गया और पत्नी प्रेम फीका पड़ गया ।

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मैं चोर नहीं

रविवार, 12 जून 2011

लघुकथा



मन पंछी
/सुधा भार्गव








--हलो --शबनम  ! कैसी हो ?तुम्हें तो बात करने की फुरसत नहीं ।
-ठीक हूं----। क्या बताऊँ  शशी , बहू  काम से बाहर गई है ।मैं प्यारी सी पोती के पास बैठी हूं ।
-अकेली -----आज कहीं बाहर घूमने नहीं गई।
-कहाँ जाऊँ ,कहीं चैन नहीं ! इसको खिलाने में ,बातें करने में बड़ा आनंद आता है  ।


--कैसा आनंद !यूं कहो एक मुफ्त की आया मिल गई है ।बहू तुम्हारा शोषण कर रही है शोषण --।
-ऐसी बात नहीं-- - - -घर में ही आनंद और तृप्ति हो तो बाहर ढूढ़ने की क्या जरूरत !


- पोती का मोह छोड़कर इंडिया  आ सकोगी - - -कब आ रही हो ?
-चाहे जब चल दूँगी !
-कैसे  आओगी ?तीन माह का टिकट जो लेकर गई हो- ---!

- उससे क्या होता है  । जब तक इज्जत की सीढ़ियाँ चढ़ती रहूंगी  तब तक यहाँ हूं ।जरा भी फिसलन लगी    ---- ,चल दूँगी ।बिना टिकट के - - -|

मन से,विश्वास ,आसक्ति समाप्त हो जाय तो उसके उड़ने में देर नहीं लगती |  मन की उड़ान के लिए टिकट की जरूरत नहीं ,शरीर यहाँ हुआ तो क्या हुआ।

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शुक्रवार, 20 मई 2011

लघुकथा - ----धाम


बैकुंठ -धाम/सुधा भार्गव 

 

पति की  मृत्यु के बाद उठावनी के दिन  श्यामा ने सलाह दी --तेरहवीं साधारण  तरीके से की जाये और शोक समाप्ति भी जल्दी हो ताकि बच्चे अपने अपने काम पर जा सकें । उनको शहर से  बाहर जाना है । यादें और इंसानी मोहब्बत  तो दिल से है उपरी दिखावे से क्या लाभ  !
-साधारण क्यों !खूब जोर -शोर से कीजिए।किस बात की कमी है-- और फिर ---चंदन बाबू अपने पीछे चंदन सी फुलवारी छोड़ गये हैं  -एक बुजुर्ग महाशय भड़क उठे।

किसी का ध्यान उस झाड़ी की ओर न गया जो चंद दिनों में ही बदरंग हो गई थी ।

तेरहवीं के बाद श्यामा अपने भाई से मिलने दिल्ली गई। वहाँ काफी लोग मिलने आये या उसकी उजड़ी मांग का जायजा लेने आये --पता नहीं----। पर वहाँ भी कुछ के  चेहरे   नाराजगी से पुते हुए थे।

- पता ही नहीं  चला -तेरहवीं कब हो गई  । हम तो तुम्हारे पास  आने को बैठे थे।
-समय  कम था --पत्र तो लिखे नहीं जा सके। लेकिन नाते -रिश्तेदारों को ई .मेल करके और फ़ोन से खबर कर दी ्थी। हो सकता है किसी -किसी को सूचना न मिल पाई हो ।
-अजी आपके बेटे तो बहुत समझदार हैं ।यह गलती तो नहीं होनी चाहिए ----थी।
-इस बार माफ कीजिये। अगली बार आपको शिकायत का मौका नहीं दिया जायेगा । मैं बैकुंठ -धाम जल्दी ही जाऊंगी।


सन्नाटे की रेखाएं खिच गईं ------- शायद---शायद श्यामा को माफी मिल गई थी ।

* * * * *


शनिवार, 2 अप्रैल 2011

लघुकथा----आयेगा


वह  आयेगा  / सुधा भार्गव





जीजी ,जीजाजी  कैसे  हैं ?
-ठीक  नहीं |
-कनाडा  से  कमल  को  बुला लो । उसे  गये  बहुत  दिन  हो  गये । कोई  तो  चाहिए - - - आप अकेले  जीजाजी को कैसे सम्हांलोगी ।
-हाँ ,सोच तो रही  हूं।
-पर  वह  आएगा  नहीं-- एक  बार  जो  चला  जाय वह  आता   है  क्या !  यहाँ इतना  पैसा भी  तो नहीं मिलता ---पैसा ही तो सबकुछ है।
काशी मौन थी । उसका विश्वास अटल था --'वह  आएगा ।

सुबह होते ही आदत  के मुताबिक कम्प्यूटर पर जा बैठी।स्काई  पी पर  क्लिक कर दिया  । आवाज  गूंजी- - -
-हैलो  माँ !राम -राम ,कैसी- - -- हो ?
-मैं तो ठीक हूं पर  तुम्हारे पापा अस्वस्थ  हैं  । अब तो  भारत भी बहुत  तरक्की  कर रहा है । यदि  जरा भी तुम्हारा स्वदेश  लौटने  का इरादा हो तो देरी  मत  करो । पके फलों को टपकने में क्या देर लगे ।
-ओह माँ !चिंता न करो। बेटा छोटा सा उत्तर देकर खामोश हो गया।

  खामोशी तलवार की तरह काशी की गर्दन पर लटक गई --कहीं वह बच्चों से ज्यादा आशा तो  नहीं  कर रही । वह दिन उसकी स्मृति में डोल  गया  जब बेटा एयर पोर्ट में घुसने से पहले  बोला था --
--माँ इतने चाव से मुझे विदेश भेज रही हो  ।पर एक  बार मैं गया तो लौटने की ज्यादा उम्मीद न करना।

व्याकुलता ने कुछ क्षणों को अपना सिर अवश्य उठाया पर शीघ्र ही उसके विश्वास के आगे झुक गया रोम -रोम पुकार उठा -वह आएगा----वह आएगा - - - -।

सूर्य की लाली फैलते ही उस दिन मोबाईल  बज उठा - - -
-माँ मैं आ रहा हूं-- वह भी एक  माह को  ।
-तू आ रहा है ---- -!एक पल को दिवाली सी रौनक उसके मुख पर छा गई ।

बेटा आया  ।पन्द्रह दिन कम्प्यूटर से चिपका  बैठा रहा। फिर बंगलौर -हैदराबाद की उड़ान भरने चला गया । लौटने पर माँ के आँचल की छांह  ढूढ़ने लगा - - - -माँ --माँ --कहाँ हो मुझे बैंगलौर में नौकरी मिल गई है । दो माह बाद भारत आना है ।
-इतनी जल्दी- - -  !१५ साल  की तेरी गृहस्थी ,बसा
-बसाया घर! कैसे सब उठा सकेगा ।
-जब  आना है तो बस आना है ।

माँ का विश्वास  मुस्काने लगा  ।

--अच्छा माँ ,एक बात बताओ -दिल्ली में मामा -मौसी ,बुआ --सारी  रिश्तेदारी है । इनका मोह छोड़ना सरल नहीं।अब  आप  कहाँ रहोगी -दिल्ली या बैंगलौर !
-बैंगलौर ,तेरे पास ! तू  मेरे लिए कनाडा छोड़कर भारत आ सकता है तो क्या मै दिल्ली छोड़कर बैंगलौर नहीं  रह सकती।
बेटा निहाल हो गया ।
आत्मीयता के अनमोल क्षणों में संतोष का सैलाब उमड़ पड़ा।

विश्वास जीत गया था ।


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रविवार, 23 जनवरी 2011

-लघुकथा


क्या   होगा  हमारा !-
सुधा भार्गव




-यह  क्या  मुसीबत  है - - - सुबह  से  ही  पानी  की  किल्लत ! न  बाथरूम  में  पानी  न रसोई  में  पानी I
-तुम  को  मालूम  नहीं !पानी  का  राशन  हो  गया  है I एक एरिया  में  एक -एक  दिन  छोड़कर  आएगा  ,वह  भी  केवल  चार  घंटे  को I                                                                 -  हे भगवान् !    मैंने  तो  चार  दिन  से  अखबार  ही  नहीं  पढ़ा I पड़ोसिन  से  एक  बाल्टी  पानी  मांग  लाती  हूं I

-आज  तो  पड़ोसिन  भी  नहीं  देगी I वह  अपना  भला  करेगी   या  तुम्हारा I
-मेरी  पड़ोसिन  ऐसी  नहीं  है I
-तो  आजमा  लो - - - I

छाया  बड़े  गर्व  से  उठी  और  सामने  ही राधा  के  दरवाजे  की  घंटी  बजा दी I राधा  ने  दरवाजा  खोला I बाल्टी  लिए  खडी  छाया  को  देख  वह  समझ  गयी  उसकी  मंशा I
चटक  से  बोली --माफ  करना ,पानी  से  तो  हमारे  ही  पूरे  नहीं  पड़ेंगे - - - तुम्हें  कैसे  दे  दें I संवाद  को  आगे  न  बढ़ाते हुए  उसने खटाक  से  दरवाजा   बंद  कर  दिया I

छाया  का  मुँह  उतर  गया I दोस्ती  घुटन  में  बदल  गयी I इतने  में  चौका  -बर्तन  करनेवाली  आई  I सीधे  रसोईघर  में  गई I मिट्टी  के  घड़े  से  दो  गिलास  ठंडा  पानी गट- गट  पीकर   चैन  की  साँस  ली I
मालकिन  की  घुटन  शोले बनकर  उस  पर  बरस  पड़ी --

-यहाँ  हलक  तर  करने  के  टोटे पड़  रहे  हैं  और  तू - - - एक  साथ  दो  गिलास  पानी  चढ़ा  गयी I  तेरे  घर  में  पानी  नहीं  है  क्या !
तीखी  आवाज  से  महरी  सहम  गयी  I मालकिन  की परेशानी  में  उसे  अपनी झलक  दिखाई  देने  लगी I उदासी  उसकी  आँखों से  झरझर  बहने  लगी I

-मेरे  घर  में  वाकई में   पानी  नहीं  हैं I वर्षों  से  प्यासी  मछली  की  तरह इस  त्रासदी  को  झेल  रही  हूं I पचास  झोंपड़ियों  की  जिन्दगी एक  नल  पर  टिकी  है I
तडके  ही लाइन  में  लगना  पड़ता  है  तब  कहीं  एक  बाल्टी  पानी  हिस्से  आता  है I
-एक  बाल्टी पानी !- - बस  - - -I
-हाँ  मालकिन !आपने  तो आज  पानी  की  कीमत समझी है I वर्षों  - - उसे बेतहाशा -बेदर्दी  से  बहाया  है I अब  तो  सब  इलाकों  में पानी  की  आपूर्ति  समान  रूप  से  होगी I आप  जैसे  लोगों  से  बचकर  कुछ  पानी  तो  हमारी  झोली  में  आकर   गिरेगा I

मालकिन  को 'समान ' शब्द  से  चिढ़ हो  उठी  I  माथा  थामकर  पीढ़े  पर  बैठ  गई I  सोच  के  आवारा  बादल टकराने  लगे- -  -समानता - - -उदारता  का  राग - - -  जहन्नुम  में  जाये I घरेलू-पालतू नौकरों  का  अकाल  पड़  गया  तो  मेरा -  - - - - क्या  होगा I

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