महाभोज /सुधा भार्गव
विवाहोत्सव का महाभोज । मसालों की खूशबू और स्वादिष्ट खाद्य-पदार्थों की सौंधाहट वातावरण में ऐसी घुली कि फूलों की महक भी उसके सामने फीकी पड़ गई। जिसने लोगों की जठराग्नि में घी का काम किया। खूब छककर परोसा जा रहा था ,खूब छककर खाया जा रहा था। इधर एक कचौरी पेट मे गई उधर दूसरी पत्तल में हाजिर !जब पेट ठूंस ठूंस करभर लिया गया तो हाथ झाड़कर उठ खड़े हुए,बिना अंदाजा लगाए कि पत्तल में नष्ट होने के लिए क्या –क्या छोड़ दिया गया है। तभी एक आदमी खाली टोकरी लेकर आया और पत्तलों में से साबुत ,अनछुई पूरी कचौरी, लड्डू -इमरती आदि उठाकर टोकरी में रखने लगा।
एक सज्जन चिल्लाए—अरे ,यह जूठन बटोरकर कहाँ ले जा रहा है। क्या अगली पंगत में बैठने वाले भद्र लोगों को यह जूठन परोसी जाएगी? ऐसा पाप ---राम –राम ।
-नहीं साहब ,ऐसा अनर्थ मैं कैसे कर सकता हूँ मगर इससे पेट तो भरा जा सकता है। दरवाजे से बाहर बच्चों की कतार लगी हुई है। बड़ी आस से मेरी प्रतीक्षा कर रहे हैं। न जाने कब से एक निवाला उनके मुंह में नहीं गया ।उन्हीं के लिए यह सब है। आपने मन से खाया और खूब लिया पर इसका मतलब यह तो नहीं कि भोजन को बर्बादकर उसे कचरे के ढेर में डाल दो।
-थोड़ी –बहुत झूठन तो छोड़ी जाती है वरना लोग कहेंगे –‘क्या नदीदे थे पत्तल चाट गए।पर जूठन तो झूठन ही है, चाहे कोई खाए! भुखमरों की औलाद को खिलाने से भी तू पाप का भागीदार बनेगा ,मैंने बस कह दिया। सज्जन महाशय अपना आपा खो बैठे और तू तड़ाक पर उतर आए ।
-साहब, भूखे पेट की न कोई जात होती है और न कोई धर्म । मैं भी नहीं जानता कि मुझे पाप मिलेगा या पुण्य पर इतना जरूर है कि उनके मुरझाए चेहरों पर आई खुशी को देख मुझे भी खुशी मिलेगी।