लघुकथा
घिराव /सुधा भार्गव
जावित्री की साध थी कि डाक्टर बेटे के लिए बहू भी डाक्टर हो | बधाई देने वालों का ताँता लग गया |
विवाह के अवसर पर सावित्री बोली --जावित्री तेरी तो मन की मुराद पूरी हो गयी |
-हाँ दीदी !कल तो गीत संध्या है | बहू का नाच होगा |बहू नाचना जानती है | डाक्टर होते हुए यह हुनर भी है |
खाना जरा कम बनाना आता है सो वह मैं सिखा दूँगी | |मैं तो अपनी बहू को सर्वगुण संपन्न देखना चाहती हूं |
विवाह की भीड़ छंट जाने पर बहू रुनझुन ने चैन की साँस ली I डाक्टर होने के नाते दूसरों की साँस बनाये रखती थी पर खुद का नये वातावरण में दम घुट रहा था I बचपन में कभी कत्थक सीखा था I शौक -शौक में स्कूल के डांस कार्यक्रमों में भाग लेती थी परन्तु जीवन के रंगमंच पर उसको इसकदर नाचना पड़ेगा ,उसने सोचा भी न था I डर था दूसरों के इशारे पर नाचना उसकी नियति न बन जाए I
जात -बिरादरी में जब भी शादी ब्याह होते ,रुनझुन की सास एक सप्ताह पहले ही उसे सतर्क कार देती -बहू,नाच तैयार कर लेना I
एक माह बीता ही था कि रुनझुन को सपने आने लगे -डाक्टर मुझे बचाओ ,मेरे बच्चे को दवा दे दो I
शीघ्र ही अपने कर्तव्य की पुकार सुन किसी अस्पताल में काम करने का निश्चय कर लिया I धर्मार्थ अस्पताल में तो वह एक हफ्ते बाद ही जाने लगी और एक प्रसिद्ध चिकित्सालय के लिए उसने अर्जी दे दी I
जिस दिन उसे इंटरव्यू देने जाना था उसी दिन उसके डाक्टर पति का जन्मदिन था I पिछले वर्ष से कुछ ज्यादा ही लोगों को निमंत्रित किया गया था , जिसका उद्देश्य जन्मदिवस मनाना नहीं अपितु यह दिखाना था कि हमारे घर की बहू डाक्टर होने के साथ -साथ घर के कार्यों में और आतिथ्य सत्कार में कितनी प्रवीण है I
बेटे ने दबे स्वर में कहा --मम्मी ,जन्मदिन एक दिन बाद मनाया जा सकता है I कल तो रुनझुन का इंटरव्यू है I
-अरे इंटरव्यू है तो क्या हुआ i एक नहीं तो दूसरा i मेरी बहू के लिए तो हजार इंटरव्यू इन्तजार करेंगे I जन्मदिन तो वर्ष का एक दिन ही होता है उसे कैसे टला जा सकता है I
-घर में इतने नौकर -चाकर हैं काम में कोई फर्क नहीं पड़ेगा,परन्तु रुनझुन इंटरव्यू देने नहीं गई तो उसे बहुत फर्क पड़ेगा I बेटे ने समझाने का प्रयत्न किया I
-न बाबा ना---- I बहू के बिना एक मिनट नहीं चलेगा I बहुत कर लिया मैंने काम I अब नहीं संभलता मुझसे घर I ले बहू ,घर की चाबियाँ और संभाल इस घर को I
रुनझुन से कुछ कहते न बना I एक तरफ उसकी सास उसके गुण गाते नहीं अघाती थीं दूसरी ओर उसे अपनी बीन पर नचाना चाहती थीं I क्या वह नाच पायेगी I संदेहों ,सवालों के बीच वह घिरी हुई थी I
चित्रांकन /सुधा
शुक्रवार, 26 मार्च 2010
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ये घर घर की कहानी है..बहु प्रोफेशनल भी चाहिये और घरु भी..बढ़िया कथा.
जवाब देंहटाएं-
हिन्दी में विशिष्ट लेखन का आपका योगदान सराहनीय है. आपको साधुवाद!!
लेखन के साथ साथ प्रतिभा प्रोत्साहन हेतु टिप्पणी करना आपका कर्तव्य है एवं भाषा के प्रचार प्रसार हेतु अपने कर्तव्यों का निर्वहन करें. यह एक निवेदन मात्र है.
अनेक शुभकामनाएँ.
घर घर की कहानी प्रभावी तरीके से
जवाब देंहटाएंnice
जवाब देंहटाएंएक बार तो ऐसा लगा कि
जवाब देंहटाएंलघुकथा का वही घिसा-पिटा
पुराने ढंग का अंत होगा,
लेकिन इस प्रश्न ने अंत में ही नहीं,
पूरी लघुकथा में जान डाल दी --
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क्या वह नाच पाएगी?
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मुस्कानों की सुंदर झाँकी के साथ -
संपादक : सरस पायस