वेदना-संवेदना के बीहड़ जंगलों को पार करती हुई बड़ी खामोशी से तूलिका सृजन पथ पर अग्रसर हो अपनी छाप छोड़ती चली जाती है जो मूक होते हुए भी बहुत कुछ कहती है । उसकी यह झंकार कभी शब्दों में ढलती है तो कभी लघुकथा का रूप लेती है । लघुकथा पलभर को ऐसा झकझोर कर रख देती है कि शुरू हो जाता है मानस मंथन।

शुक्रवार, 4 सितंबर 2009

लघुकथा -2

मर्म स्थल को स्पर्श करती है लघुकथा |

लक्ष्मी 




चकोरी दूसरी बार गर्भवती हुई तो फुलवा फूला न समाया !ज्यों -ज्यों प्रसवकाल समीप आता गया फुलवा हवा में उड़ने लगा मगर चकोरी की नींद गायब हो गई !

-पूछ बैठी --पिछली बार नन्ही सी जान का गला घोंट दिया था !
!इस बार उसने ही दोबारा जन्म ले लिया तो तुम क्या करोगे ?


'करूँगा क्या !छाती से लगाकर रखूँगा !अब तो वह लक्ष्मी होगी !देख तो -----इस अखबार में लिखा है ---अगर कन्या हुई तो उसके जन्म के समय .,फिर थोडा बड़े होने पर और फिर शादीके समय सरकार अच्छी -खासी रकम देगी !तीन -तीन बार !वाह री किस्मत !
सोच रहा हूँ -मैं भी देसी की जगह विलायती दारू पीने लगूं!'


* * * * * * *




|||| कहाँ जायेगी ?




दादी के समय से घंटी घर का चौका -बर्तन किया करती थी !हम उसे काकी कहा करते थे !वह बहुत मेहनती थी !जिन दिनों घर में नल नहीं था ,वह तीन -तीन मटके अपने सिर पर रखती और उन्हें दूसरी मंजिल पर पहुंचाती ! पिताजी को दो साल का छोड़कर दादी परलोक सिधार गई ! उन्हें रोता देखकर काकी सीने से लगा दुखी हो उठती !

वह बतियाती जाती और अपना काम भी करती जाती !पिताजी की शादी होते -होते वह काफी बुढा गई ! आँखों से भी कम दिखाई देता !उसके साफ किये बर्तनों को देखकर नाक -भौं सकोड्ती रहती मैं !

गिलास सूंघती -'बदबू ' कहकर पटक देती !माँ उससे कुछ नहीं कहतीं !मेरी बाल बुद्धि में यह नहीं आता था --जब काकी ठीक से काम नहीं कर सकती तो इसे रख क्यों छोड़ा है !


'एक दिन मैंने कहा दिया -'काकी ,तेरे सारे बर्तनों में राख लगी है ! ठीक से धो !'

'क्या कहा !तेरे बाप की हिम्मत नहीं कि कुछ कहे और तू दो दिन की छोकरी मिजाज दिखावे है !'

इतने में पिता जी न जाने कहाँ से आ धमके!मैं भागने लगी !
वे मुस्काते बोले -गन्दगी तो साफ की जा सकती है ,काकी ने तो अपनी जवानी इस घर की सेवा में गुजार दी,बुढ़ापे में कहाँ जायेगी ?'


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