वेदना-संवेदना के बीहड़ जंगलों को पार करती हुई बड़ी खामोशी से तूलिका सृजन पथ पर अग्रसर हो अपनी छाप छोड़ती चली जाती है जो मूक होते हुए भी बहुत कुछ कहती है । उसकी यह झंकार कभी शब्दों में ढलती है तो कभी लघुकथा का रूप लेती है । लघुकथा पलभर को ऐसा झकझोर कर रख देती है कि शुरू हो जाता है मानस मंथन।

बुधवार, 25 सितंबर 2013

अंतर्जाल पत्रिका में प्रकाशित


लघुकथा डॉट कॉम पर भी मेरी  लघुकथा छोटी बहू पढ़ सकते हैं ।
http://laghukatha.com/565-1.html

छोटी बहू








बेटी की विदाइगी के समय आकाश की रुलाई फूट पड़ी और सुबकते हुए अपने समधी जी से बोला --भाई साहब ,मेरी बेटी  को सब आता है पर खाना बनाना नहीं आता है । 
समधी बने मनोहर लाल ने सहजता से कहा -कोई बात नहीं --आपने सब सिखा दिया ,खाना बनाना हम सिखा देंगे । 
सरस्वती के पुजारी समधी जी आज फूले नहीं समा रहे थे घर में पढी -लिखी बहू जो आ गई थी ।  जो भी मिलता कहते -भई ,पाँच -पाँच बेटियाँ विदा करने के बाद घर में एक सुघड़ बेटी आई है ।

 शाम का समय था कमरे मेँ बिछे कालीन पर एक चौकी रखी थी जिस पर चाय -नाश्ता सलीके से सजा था । नन्द -देवर अपनी भाभी  को घेरे बैठे थे और इंतजार मेँ थे कि कब घर की बड़ी बहू आए औए चाय पीना शुरू हो । 
कुछ मिनट बीते कि  जिठानी जी  धम्म से कालीन पर आकर बैठ गईं और बोली -हे राम ,मैं तो बूरी तरह थक गई ,मुझसे कोई  उठने को न कहना । और हाँ छोटी बहू  !मुझे एक कप चाय बना दो और तुम लोग भी शुरू करो । 
चाय केआर घूँटभरने शुरू भी नहीं हुये थे कि छोटे बेटे को ढूंढते हुये ससुर जी उस कमरे मेँ आ गए और बोले -रामकृष्ण तो यहाँ नहीं आया ?
 बड़ी बहू  ने जल्दी से सिर पर पल्ला डाल घूँघट काढ़ लिया । छोटी  बहू तुरंत खड़ी हो गई और एक कुर्सी खींचते हुये बोली -बाबू जी आप जरा बैठिए  मैं आपके लिए चाय बनाती हूँ । भैया जी तो यहाँ नहीं आए । 
-न बहू ,मैं जरा जल्दी मेँ हूँ । चाय रहने दे । 
फिर बड़ी बहू से बोले -इंदा ,मैं चाहता हूँ अब से तुम भी पर्दा न करो ,नई बहू आजकल के जमाने की है । अब कोई पर्दा -सर्दा नहीं करता । 
-पहले जब मैं पर्दा नहीं करना चाहती थी तब मुझसे पर्दा कराया गया ,अब आदत पड गई तो कहा जा रहा है कि पर्दा न करो । अब तो मैं पर्दा करूंगी । 
नई नवेली बहू आश्चर्य से जिठानी जी की तरफ देख रही थी --यह कैसा पर्दा !बड़ों के प्रति जरा भी शिष्टता या आदर भावना नहीं !
मनोहर लाल जी बड़ी बहू के रवैये से खिन्न हो उठे । उसने नई दुल्हन का भी लिहाज न किया । अपना सा मुँह लेकर चले गए । 

उनके जाते ही एक वृद्धाने कमरे मेँ प्रवेश किया । 
--यहाँ कोई आया था ?जासूस की तरह पूछा । 
-हाँ !बाबू जी आए थे । जिठानी जी ने कहा । 
-बात कर रहे थे ?
-हाँ --बाबा जी मम्मी से कुछ कह रहे थे और चाची जी से भी बातें की थीं । चाची जी से तो बात करना सबको अच्छा लगता है । हमको भी अच्छा लगता है । वे हैं ही बहुत प्यारी  -प्यारी। ऐसा कहकर  बच्चे ने छोटी बहू का हाथ चूम लिया । 
-छोटी बहू ,अभी तुम नई -नई हो । ससुर से बात करना ठीक नहीं ।भौं टेढ़ी करते हुये वृद्धा बोली । 
- यदि  मुझसे कोई बात पूछे ,उसका भी जबाव न दूँ ?-----यह तो बड़ी अशिष्टता होगी !
दूसरे ही क्षण मेहमानों से भरे घर मेँ हर जुबान पर एक ही बात थी ---
छोटी बहू बड़ी तेज और जबानदराज है । 

* * * * *


सोमवार, 2 सितंबर 2013

अविराम साहित्यिकी त्रैमासिक पत्रिका में प्रकाशित लघुकथा


माँ /सुधा भार्गव 














-बेटा ,एक ही बिल्डिंग में आमने- सामने के फ्लैट में हम लोग रहते हैं मगर मिले मुद्दत हो गई ।
-मुद्दत --!कमाल करती हो माँ !तीन दिन पहले ही तो आया था ।
-तीन दिन ही सही ,हमारे लिए तो तीन युगों के बराबर हैं ।
-क्या बताऊँ --!दफ्तर में बहुत काम था । देर से घर आया । आते ही बच्चे चिपट गए । दो घंटे खाना- खिलाना ,हंसी -ठट्ठा चलता रहा ।
-यह तो अच्छी बात है , तुम बच्चों को इतना प्यार करते हो ,आफिस में भी याद करते होगे । पर एक बात भूल जाते हो --हम भी अपने बच्चे के आने की राह तकते हैं । तुम्हारी शक्ल अपने सामने चाहते हैं ,उसे छू कर बात करना चाहते हैं । लेकिन तुम ---तुम्हारी तो नजरे ही नहीं उठतीं हमारी ओर --बात करना तो दूर । फोन से ही एक बार पूछ लेते --पापा कैसे हो ?
उनकी तरफ मुड़ते हुए उसने पूछा --- आप कैसे हो ?
पापा देख नहीं सकते थे पर कानों में बेटे की आवाज पड़ते ही लगा जैसे निर्जन वन में ठंडी फुआरें पड़ रही हों |
-पापा ,माँ मेरी बात नहीं समझ पातीं पर आप तो समझ सकते हैं --
मैं अकेली जान कहाँ -कहाँ जाऊं--। बच्चों को देखूँ कि बीबी को देखूँ --यहाँ आऊँ या आफिस जाऊं।
बेटे के मुख पर परेशानी की लकीरें देख माँ हिल उठी मानो उसके अंग अंग की धज्जियाँ उड़ रही हों ।
--मेरा तो बुढ़ापा है ,शायद बेटा ,-- सठिया गई हूँ । न जाने क्या -क्या कह गई । कहे सुने को यहीं दफन कर दे ।

एक हाथ से उसने कलेजा थाम रखा था और दूसरा हाथ था वृद्ध के कंधे पर ।
* * * * *    

मंगलवार, 27 अगस्त 2013

यह लघुकथा दलित समाज पर आधारित है जो उम्मीद की किरणों के सहारे जिंदा हैं। क्या ये किरणें प्रकाश पुंज बन पाएँगी ?



सूरज निकला तो/सुधा भार्गव 


वह दलित थी ,उस पर भी बेचारी औरत जात !फिर तो दुगुन दलित । आदमी घर बैठे उसकी छाती पर मूंग दलता और बाहर -----रात के सन्नाटे मेँ उसकी चीखें हवा मेँ  घुल जातीं । सुनने वालों को सुकून ही मिलता ,दलित जो ठ्हरी!
पर माँ भी तो थी वह ,बस रख दिया तन -मन  गिरवी । एक ही आस , बड़ा बेटा पढ़ जाए तो दूसरों को संभाल लेगा।   शायद बुढ़ापा भी  सुधर जाए । धन के नाम पर एक झोंपड़ी जिसे गिराने की धमकियों ने नींद हराम कर दी थी । वर्षों पहले पूर्वजों के लगाए पेड़ों को ठेकेदार ने काट गिराए और बाकी पतिदेव के नशे की लत ने बेच खाये ।

आठवी पास  बेटा उस दिन चहकते हुये आया । बोला -माँ माँ देख तो इस अखबार मेँ  --। सरकार हमारा कितना ध्यान रख रही है । अब से हमारी जमीन ,हमारे पेड़ कोई नहीं छीनेगा । हम जंगल के राजा  थे और रहेंगे ।
-चुप भी रह । ये बातें पढ़ने मेँ ,सुनने मेँ  ही अच्छी लगती हैं । गुमराह करने की अच्छी साजिश है।  हवाई बातों को कागज पर उतारने मेँ भी काफी समय लगता है ।
-ठीक है ,कड़वे घूँट पीने की तो आदत है । अब सब्र के घूँट पीकर पेट भर लेंगे ।
-इतने बरस हो गए आजादी को ,किसी ने हमारी सुध ली ?
-लेकिन माँ 65 वर्षों के बाद हमारा सूरज तो  निकला । इसकी रोशनी फैलने मेँ समय तो लगेगा ।

अपने बेटे के चेहरे पर खिली उम्मीदों की पंखुड़ियों को वह मुरझाता हुआ नहीं देखना चाहती थी इसलिए  एक माँ जबर्दस्ती अपने होठों पर बरखा लाने की कोशिश करने लगी । 
* * * * * * *
प्रवासी दुनिया में प्रकाशित 



सोमवार, 26 अगस्त 2013

प्रवासी दुनिया में 26 अगस्त 2013 को प्रकाशित http://www.pravasiduniya.com/short-story-testament-sudha-bhargava


वसीयतनामा /सुधा भार्गव 













-बेटा ,तू हमेशा नाराज सा क्यों रहता है ?
-तुमने मेरे तकदीर जो खराब कर दी । न पढ़ाया न लिखाया न पेट भर किसी दिन खाना नसीब हुआ ।

-कहाँ से देता ----7-7 बच्चों का बाप--।
-देने को तो अब भी तुम्हारे पास बहुत कुछ है । बेटे की तीखी दृष्टि ने जर्जर काया को छेक दिया ।
-मेरे पास-- !मैं ही मज़ाक करने को मिला । टूटी डाली का पका-सड़ा फल ,कब्र में लटके पैर !किस काम का मैं !
-कहा न ---मेरा जीवन सँवारने के लिए तुम्हारे पास बहुत कुछ है ।बस अपनी वसीयत बना दो और साफ –साफ लिख दो –मरने के बाद मेरा एक –एक अंग दूसरों के काम आए पर उसकी कीमत मेरे बेटे श्रवण कुमार को सौप दी जाय ।
-खूब कहा बेटा !क्या सोच है तुम्हारी ! मान गया तुम्हें--- पर वसीयत क्यों लिखूँ ?

 -न –न  प्यारे बापू !ऐसा कभी न करना वरना बहुत से वारिस पैदा हो जाएँगे । फिर तो तुम्हारे शरीर की जो दुर्गति होगी--- –हे भगवान ! क्या तुम्हें मंजूर है ?
बाप ने याचना भरी नजरें उठाईं । बिगड़ैल घोड़े सा बेटा हिनहिना उठा-
 –रहम की भीख !क्यों ! अपने सुख की खातिर तूने हमेशा के लिए मुझे भूखे –नंगों के फ्रेम  में जड़ दिया । तब नहीं सोचा ,अब तो परमार्थ  की सोच ले । 
* * * * *

शनिवार, 1 जून 2013

लघुकथा



कलेजे का दर्द /सुधा भार्गव 









इकलौता बेटा आस्ट्रेलिया से वापस आ रहा है ,बुढ़ापे में उनको सहारा मिलेगा --माँ -बाप की खुशी का ठिकाना नहीं । बाप ने ऊपर की मंजिल के कमरे बाथरूम आधुनिक उपकरणों से सजा दिये  ताकि बहू बेटे शान से रहें । पोती करीब चार माह की थी ,उसकी परवरिश के लिए एक आया का भी इंतजाम हो गया । बेटा आया ,माँ बाप ने उसे कलेजे से लगा लिया । दूसरे दिन चाय -नाश्ते के समय  बहू तो  नीचे उतर कर आई पर  बेटा नही । माँ -बाप ने संतोष कर लिया थकान अभी दूर नहीं हुई है  इसीलिए नीचे नहीं आ पाया । शाम को भोजन  के समय सब इकट्ठे हुये । 
-बेटा ,अब तुम बिना किसी चिंता के काम पर जा सकते हो । मैं तो सुबह बजे ही चला जाता हूँ । कहो तो तुम्हें तुम्हारे आफिस छोडता जाऊं। तुम्हारी कार आने में तो समय लगेगा ।
 -पापा ,आफिस तो मैं  चार -पाँच दिनों बाद जाऊंगा । 

एक हफ्ता निकल गया पर बेटा सारे दिन बीबी के पास बैठा रहता । ऐसा लगता माँ -बाप से आँखें चुरा रहा है । बाप की अनुभवी आँखें ताड़ गईं और टोक दिया -बेटे तुम अपने  काम पर नहीं गए ?
-पापा ,काम ढूँढना पड़ेगा ,आस्ट्रेलिया में मेरी  नौकरी छूट गई थी । 
-तो जल्दी ढूंढो । 
-जल्दी किस बात की है ?अभी -अभी तो आया हूँ ,साँस तो लेने दो .... । काम करने के लिए आस्ट्रेलिया क्या कम था !
-जल्दी है । जानते हो !बाप के कलेजे में सबसे तीखा दर्द कब उठता है ?
बेटा कुछ समझ न सका और उत्तर की आशा में उसकी आँखें ठहर सी गईं । 
-जब उसका जवान  बेटा बाप की रोटी तोड़ता है । 


(प्रवासी दुनिया  अंतर जाल पत्रिका में प्रकाशित  )

मंगलवार, 2 अप्रैल 2013

सृजयमान ( सृजनात्मक साहित्य वार्षिकी पत्रिका २०१२ लुधियाना ) में प्रकाशित

मेरी दो लघुकथाएं

1--बंद ताले /सुधा भार्गव 


छोटे भाई की शादी थी । दिसंबर की कड़ाके की ठण्ड ,हाथ पैर ठिठुरे जाते थे पर बराती बनने की उमंग में करीब १२० बराती लड़कीवालों के दरवाजे पर एक दिन पहले ही जा पहुंचे । 

पिताजी सुबह की गुनगुनी धूप का आनंद लेने के लिए  जनमासे में  चहल कदमी करने लगे । कुछ दूरी पर उन्होंने देखा ५ --६ युवकों की एक टोली बड़े जोश में बातें कर रही है । 
-क्या बात है,तुम लोग नहाये नहीं !। पिताजी ने पूछा
-
कैसे नहायें अंकल ,बाथरूम में बाल्टी ही नहीं हैं ।
-
अभी बाल्टियाँ मंगवाए देता हूं और क्या चाहिए वह भी देख लो ।
-
मेरे बाथरूम में तौलिया भी नहीं है दूसरा युवक बोला ।
-
ठीक है चुटकी बजाते ही सब हाजिर हो जायेगा । 

पिताजी तो चले गये पर लड़कों का लाउडस्पीकर चालू था ।
-
जब इंतजाम नहीं कर सकते तो ये लड़कीवाले बारातियों को बुला  क्यों लेते  हैं ।
-
अरे दोस्त लगता है  ये सस्ते में टालने वाले हैं । हम ऐसे सस्ते में टलने वाले नहीं ।
उनकी बातें विराम पर आना ही नहीं चाहती थीं लेकिन सामने से एक सेवक को  बाल्टियों और तौलियों से लदा -फदा देख उनके मध्य मौन पसर गया -
                                                                           
एक बुजुर्ग महाशय को जब यह पता चला कि बारातियों की  मांगे खुद पिताजी पूरा कर रहे हैं तो उनसे यह भलमानसता  सही न गई ।
बोले- --त्रिवेदीजी  लड़के के पिता होकर समधी  के सामने इतना  झुकना ठीक नहीं । आखिर हम सब हैं तो बराती बराती तो बराती ही होते हैं ।

-लड़के -लडकी का रिश्ता हो जाने के बाद दो परिवार एक हो जाते हैं।  मेरी तो यही कोशिश रहेगी कि दोनों 
के सुख -दुःख ,मान -अपमान  की कड़ियाँ इस  प्रकार बिंधी रहें कि भोगे एक तो अनुभूति हो दूसरे को।  पिताजी  शांत स्वर में बोले । 
सुनने वालों के दिमाग के ताले खुल चुके थे ।
 


2---तुम महान थे /सुधा भार्गव 





अनाथालय के अध्यक्ष महोदय ने भाषण दिया --
-पछले वर्ष 50 अनाथ बच्चों को सनाथ बनाया गया  ।गोद  लेने से पहले उनके होने वाले माता -पिता  की अच्छी तरह से जाँच -पड़ताल की गई ।जब पूरी तरह तसल्ली हो गई कि असीमित प्यार लुटाते हुए वे असीम गहराई के साथ उनका भविष्य निर्माण करेंगे तभी  गोद देने की कार्यवाही पूरी हुई ।सभागार तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा ।

भाषण फिर चालू हुआ -पांच वर्ष पूर्व दिए  बच्चों के अभिभावकों को हमने इस समारोह में विशेष रूप से आमंत्रित किया है ताकि बच्चों से सम्बंधित उपलब्धियों को जान कर गर्व का अनुभव किया जा सके ।
भाषण समाप्ति के बाद एक विशिष्ट देश का नागरिक खड़ा हुआ ।
-मैं गोद लिए बच्चे  के बारे में कुछ कहना चाहता हूँ ।
सब की नजरें उस पर केन्द्रित हो गईं ।
विलियम मेरा दत्तक पुत्र ---तुम महान थे |मेरा पुत्र 11वर्ष का हो गया था ।  
 उसने न जाने  कितनों का जीवन सँवार दिया ।अपनी एक जिन्दगी के बदले 10 को नई जिंदगियाँ दे गया ।लेकिन मुँह से उफ तक न की ।
सुनने वाले  सकपका  गए ।
--आप कहना क्या चाहते हैं ।अध्यक्ष के धैर्य की दीवार ढह गयी ।

विदेशी ने फिर कहना शुरू किया --पिछले माह बम विस्फोट के कारण  स्कूल बच्चों की लाशों से पट गया ।अस्पताल  बच्चों की दर्दनाक चीखों से हिल गया ।विलियम ने जीतेजी अपनी दोनों खूबसूरत आँखें और गुर्दे दूसरों के लिए दान कर दिए ।अफसोस ! उसके दिल का उपयोग न हो सका ।कमजोरी के कारण अचानक उसके ह्रदय की गति रुक गई ।लेकिन उसका बहुत बड़ा दिल था।मेरे प्यारे विलियम --तुम महान  थे । 
सुनने वाले समझ  नहीं पा रहे थे कि वे हँसें या  रोयें , दाद दें अध्यक्ष महोदय की या उस विदूषक की जो अपने को विलियम का पिता कहता था ।
* * * * *

शुक्रवार, 22 मार्च 2013

हिन्दी चेतना में प्रकाशित


पुरस्कार /सुधा भार्गव 

 यह उन दिनों की बात है जब मैं कलकत्ते में जय इंजीनियरिंग वर्क्स के अंतर्गत उषा फैक्ट्री में इंजीनियर था । जितना ऊँचा ओहदा उतनी  भारी भरकम जिम्मेदारियां !खैर --मैं चुस्ती से अपने कर्तव्य पथ पर अडिग था । 

अचानक उषा फैक्ट्री में लौक आउट हो गया । छह माह बंद रही । हम सीनियर्स को वेतन  तो मिलता रहा पर रोज जाना पड़ता था । आये दिन मजदूर अफसरों का घिराव कर लेते थे क्योंकि लौक आउट होने का कारण ,वे उन्हें  ही समझते थे । 

;माह के बाद नींद हराम हो गई।  तरह -तरह की अफवाहें जड़ ज़माने लगीं --बंद हो जायेगा वेतन मिलना ,छंटनी होगी कर्मचारियों की ,इस्तीफा देने को मजबूर किया जायेगा --फैकट्री बंद हो जायेगी । 
दिन -रात मैं सोचता -भगवान् नौकरी छूट गई तो क्या होगा --|तीन बच्चों सहित कहीं एक दिन भी गुजारा नहीं । 

एक अन्तरंग मित्र जो देहली   में रहते थे सलाह दी -एक माह की छुट्टी लेकर तुम यहाँ आ जाओ । मशीने मैं  खरीदूंगा तुम कार के पार्ट्स बनाना । 
वहाँ जाकर मैंने कार के पार्ट्स की ड्राइंग की फिर उसके अनुसार  पार्ट्स बनवाये । मैंने अपनी सफलता की सूचना मित्र को  बड़े उत्साह से दी । 

वे बोले- ---पार्ट्स तो बनवा लिए पर इनके  विज्ञापन का कार्य भी आपको करना पड़ेगा । प्रारंभ  में तो दरवाजे -दरवाजे आपको ही जाना पड़ेगा । इनके इस्तेमाल करने से होने वाले फायदे आपसे ज्यादा अच्छी तरह दुकानदारों को कौन समझा सकेगा । उनकी मांग  पर निर्भर करेगा कितना माल बने । व्यापार में शुरू -शुरू में अकेले ही करना पड़ते है । मेरा  मतलब माल बनाना ,बेचना ,पैसा उगाहना । 

व्यापार के मामले में  मैं नौ सीखिया--बाप दादों में कोई व्यापारी नहीं --इतनी भागदौड़ वह भी अकेले।  फैक्ट्री में तो अलग -अलग विभाग के अलग दक्ष अफसर व कर्मचारी । यहाँ मैं समस्त विभागों की खूबियां  अपने में कैसे पैदा करूँ !
इस डावांडोल परिस्थिति में मैंने निश्चय किया -पार्ट्स लुधियाना में छोटे छोटे कारखानों से बनवाकर उन्हें बेचूँगा । लुधियाने मैं मेरी जान पहचान भी थी । 

कार का एक विशेष पार्ट ५रुपये का बना । मैंने उसकी कीमत १०रुपये रखी । इस बारे में दोस्त की सलाह लेनी भी आवश्यक समझी । 
 बोले- -१०रुपये तो बहुत कम है ,१५ रखिये । 
-इतनी ज्यादा ! पार्ट बिकेगा नहीं । 
-सब बिकेगा |जो ज्यादा से ज्यादा झूठ बोलने वाला होता है वही बड़ा व्यापारी बनता है । यहाँ ईमानदारी से काम नहीं चलता । 

कई  दिन गुजर गये पर उनकी बात पचा न पाया। मेरी स्थिति बड़ी अजीब थी !पैसा मेरा दोस्त लगा रहा था  इस कारण उसकी बात माननी जरूरी थी मगर मानूँ कैसे !मेरी आत्मा कुलबुलाने लगती ,बार -बार धिक्कारने आ जाती । आखिर   हिम्मत करके एक सुबह बोल ही  दिया -
-यार ,मुझसे यहाँ काम धंधा  नहीं होगा । कलकत्ते ही वापस जा रहा हूँ । 
-जानता था --जानता था ,तुमसे कोई काम नहीं होगा |ये इंजीनियर सब बेकार होते हैं |
उस पल मैं हजार बार मरा होऊंगा ----। 

कलकत्ते पहुँचते ही फैक्टरी गया । मेरी मेज पर एक लिफाफा रखा हुआ था । काँपते हाथों से उसे खोला । लग रहा था सैकड़ों  बिच्छू  एक साथ उँगलियों में डंक मार रहे हों । 
मेरे नाम पत्र था -- 
आपकी ईमानदारी व मेहनत से प्रशासक वर्ग बहुत प्रभावित है । अत :खुश होकर आपको हैदराबाद भेज रहे हैं ताकि फैन  फैक्टरी में भी विकास विभाग संभालकर नये -नये डिजायन के पंखों का निर्माण करें । 
 हमारी शुभ कामनाएं आपके साथ हैं । 


गूगल से साभार 


 प्रकाशित -हिन्दी प्रचारिणी सभा (कैनेडा )की अंतर्राष्ट्रीय त्रैमासिक पत्रिका  हिन्दी चेतना लघुकथा विशेषांक  अक्तूबर 2012 में. 

हिन्दी चेतना की लिंक है  - http://hindi-chetna.blogspot.in/

रविवार, 17 मार्च 2013

मेरी लघुकथा



हस्ताक्षर /सुधा भार्गव

संसद में यह अधिनियम पास हो चुका था कि बाप –दादा की संपत्ति में बेटियों का भी हक है । यदि वे चाहें तो अपने कानूनी हक की लड़ाई लड़ सकती हैं । भाई बेचारों के बुरे दिन आ गए । यह हिस्सा बांटा नियम कहाँ से आन टपका ! कुछ सहम गए ,कुछ रहम खा गए ,कुछ घपलेबाजी कर गए ,कुछ चाल चल गए । माँ –बाप मुसीबत में फंस गए । बेटी को दें तो ---बेटे से दुश्मनी ,न दें तो उसके प्रति अन्याय ! जिनके माँ –बाप ऊपर चले गए ,उनके लड़कों ने संपत्ति  की कमान सँभाली । निशाना ऐसा लगाया कि माल अपना ही अपना ।

सोबती की शादी को दस वर्ष हो गए थे । वह हर समय अपने भाइयों के नाम की माला जपती रहती –मेरे भाई महान हैं । उनके खिलाफ कुछ नहीं सुन सकती । लाखों में एक हैं वे । राखी के अवसर पर  दोनों भाइयों की कलाई पर सोबती  स्नेह के धागे बांधती । वे भी भागे चले आते । उत्सव की परिणति महोत्सव  में हो जाती ।

इस साल भी तीनों भाई –बहन एकत्र हुये । छोटा भाई कुछ विचलित सा था । ठीक राखी बांधने से पूर्व उसने एक प्रपत्र बहन के सामने बढ़ा दिया –दीदी ,इसपर हस्ताक्षर कर दो ।
हस्ताक्षर करने से पूर्व उसने पढ़ना उचित समझा । लिखा था –मैं इच्छा से पिता की संपत्ति में से अपना हक छोड़ रही हूँ ।

सोबती एक हाथ में प्रपत्र अवश्य पकड़े हुये थी परंतु हृदय में उठती अनुराग की अनगिनत फुआरों में भीगी सोच रही थी -----
–बचपन से ही मैं अपने हिस्से की मिठाई इन भाइयों के लिए रख देती थी और ये शैतान अपनी मिठाई भी खा जाते और मेरी  भी । उनको खुश होता देख मेरा खून तो दुगुना हो जाता था । आज ये बड़े हो गए तो क्या हुआ ,रहेंगे तो मुझसे छोटे ही !यदि ये मेरा संपत्ति का अधिकार लेना चाहते हैं ,तो इनकी मुस्कुराहटों की खातिर प्रपत्र पर हस्ताक्षर कर दूँगी । मुझे तो इनको खुश देखने की आदत है ---।

सोबती ने बारी –बारी से दोनों भाइयों की ओर देखा और मुस्कराकर प्रपत्र पर हस्ताक्षर कर दिये ।

प्रकाशित -संकलन  लघुकथाएं जीवन मूल्यों की (फरवरी 2013 में प्रकाशित)
सम्पादन -सुकेश साहनी ,रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

                                                                             

शुक्रवार, 22 फ़रवरी 2013

लघुकथा



बंदर का तमाशासुधा भार्गव 





सड़क पर एक  औरत बंदर का तमाशा दिखा रही थी । मैले कुचैले ,फटे फटाए कपड़ों से किसी तरह तन को ढके हुये थी ।  बंदर की कमर में रस्सी बंधी थी जिसका एक छोर उस औरत ने पकड़ रखा था । झटके दे –देकर कह रही थी –कुकड़े ,माई –बाप और अपने भाई –बहनों को सलाम कर और कड़क तमाशा दिखा तभी तो तेरा –मेरा पेट भरेगा । 

बंदर भी औरत के कहे अनुसार मूक अभिनय कर पूरी तरह झुककर सलाम ठोकने की कोशिश कर रहा था ।

-अच्छा –अब ठुमक –ठुमक कर नाच दिखा --।मैं गाती हूँ। 
औरत ने गाना शुरू किया –

अरे छोड़  छाड़  के अपने
सलीम की गली --
अनारकली डिस्को चली ।

बंदर ने बेतहाशा हाथ पैर फेंकने कमर –कूल्हे मटकाने शुरू किए,उसे डिस्को जो करना था । थक कर जमीन पर बैठ गया तो तालियों ने उसका स्वागत किया ।
तमाशा देखने वालों की भीड़ उमड़ पड़ी थी । लोग हंस हंस कर कह रहे थे –पैसा फेंको –तमाशा देखो ।
और वह बंदर -- बंदर नहीं था बल्कि बंदर का तमाशा दिखाने वाली उस गरीब औरत का दो वर्षीय नंग –धड़ंगा बेटा था । 

* * * * * *