अनुभूति /सुधा भार्गव
कुछ दिनों से रूमा सोच ही नहीं पाती थी कि क्या पहनूँ क्या नहीं | जब भी अलमारी के सामने खड़ी होती मन के एक कोने से आवाज आती -अब तो तुझे हलके रंग ही पहनने चाहिए वरना दुनिया क्या कहेगी ----! |इसका मतलब मेरी अलमारी में पहनने लायक कपड़े ही नहीं हैं ,रंग -बिरंगे कपड़ों से बेकार अलमारी भरी पड़ी है -सोचकर खट से उसे बंद कर देती |एक अनकहा दर्द बूंद -बूंद करके उसकी आँखों में टपक पड़ता |
कुछ दिन तो सफेद ,हलके आसमानी कपड़े पहनती रही पर बदरंग कपड़ों को पहनकर मुर्दनी छाये चेहरे के साथ -साथ वह स्वयं मुर्दा लगने लगती | मन टुकड़े -टुकड़े हो बिखर जाता |उस समय की अपनी खिंची फोटुओं को देख उसे मितली आने लगी | कई फोटुओं को तो फाड़ भी दिया |
उस दिन रूमा को अपनी सहेली कोयल के जाना था |उसकी बेटी की सगाई थी |साड़ी का चुनाव करते समय लाल -हरी साड़ी से उसके हाथ टकराए जिसे हैदराबाद में पोचम पल्ली गाँव जाकर उसके पति राजा ने बड़े शौक से खरीदी थी |
कहीं भी जाना होता --उसे बस एक ही धुन ---पोचमपल्ली वाली पहनो ना |
कहीं भी जाना होता --उसे बस एक ही धुन ---पोचमपल्ली वाली पहनो ना |
हठात हाथ साड़ी को बड़े अपनेपन से सहलाने लगे |सरसराहट सी हुई --पहनो न --पहनो --बड़ी अच्छी लगती हो |
वह अपने को रोक न सकी |साड़ी को पहनकर कोयल के घर की ओर बढ़ गई | रास्ते में कई नजरें घूर रही थीं पर आज उसे उनकी परवाह न थी |
दरवाजा खोलने वाली की आँखें तो फटी की फटी रह गईं -|
--रूमा तू !---य -ह --साड़ी ---इतनी चटक !
-हां कोयल -- पिछले साल पति को खो बैठी जिससे साड़ी के तो क्या-- जीवन के सारे रंग छिटककर मुझसे दूर जा पड़े थे पर मैंने राजा को खोया नहीं है |देख न ---इसे पहनकर मेरे मन की बगिया उसके प्यार से कैसी महक रही है ।
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