"अब अपना काम भी समेटो और सामान भी। आखिर बुढ़ापा है माँ तुम्हारा । हमें तो यह पुराने जमाने का कुछ चाहिए नहीं । जिसे देना है दो ,जिसे बांटना है उसे बाँटों। और हाँ ,इन पेंटिग्स का क्या होगा जिनमें तुम्हारी जान बसी है।"
"चिंता न कर । अपनी छाती पर रख कर ले जाऊँगी।" माँ की
पीड़ा शब्दों से फूट पड़ी।
"ये हो पाता तो शायद कुछ न कहता।"
"क्यों न हो सके। चिता को आग देते समय उठती लपटों पर रखदेना ,सब धूँ धूँ कर जल उठेगा।"
"माँ मज़ाक में न लो। मेरी बात ध्यान से सुनो।"
"तो मेरी बात भी ध्यान से सुन । मैं इनके बिना जीते जी तिल तिल नहीं जलना चाहती।"
"माँ तुम कहना क्या चाहती हो?"
"मैंने तुझे तो पेट में नौ माह ही रखा है। मेरी कुछ पेंटिंग्स को तैयार होने में तो दो दो साल लग गए। उनको निहारती रहती ,उनके इर्दगिर्द चक्कर लगाती कि कब वे पूरी तरह से तैयार हों । मैं बिना सोचे समझे न किसी को दे सकती हूँ। और न पानी में बहा सकती हूँ। ये मेरी औलाद है औलाद ।तू हाड़ मास का होते हुए भी इतनी सी बात नहीं समझता कि सृजन करने वाला संहारक कैसे बन सकता है ।"
उसके अन्तर्मन की व्यथा नाक से टपटप बहने लगी जो उसके पल्लू में समा गई।
आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (29-06-2022) को चर्चा मंच "सियासत में शरारत है" (चर्चा अंक-4475) पर भी होगी!
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सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत मर्मस्पर्शी कथा लेकिन इसका आधा इसका सत्य है।
जवाब देंहटाएंबहुत मार्मिक ...... अब इस मोह से खुद को छुडाना ही चाहिए वैसे तो .....
जवाब देंहटाएंमन को छू गए आपके भाव सच सृजन औलाद ही तो है।
जवाब देंहटाएंबहुत ही मार्मिक लघुकथा।
सादर
बहुत ही मार्मिक लघुकथा |
जवाब देंहटाएंहृदय स्पर्शी लघु कथा।
जवाब देंहटाएंसच में किसी के लिए जो वस्तुएं या संकलन जान से भी प्यारे होते हैं ,उनकी कीमत दूसरा कोई नहीं समझ पाता न आंकलन कर पाता है।
अच्छी जानकारी !! आपकी अगली पोस्ट का इंतजार नहीं कर सकता!
जवाब देंहटाएंgreetings from malaysia
let's be friend