वेदना-संवेदना के बीहड़ जंगलों को पार करती हुई बड़ी खामोशी से तूलिका सृजन पथ पर अग्रसर हो अपनी छाप छोड़ती चली जाती है जो मूक होते हुए भी बहुत कुछ कहती है । उसकी यह झंकार कभी शब्दों में ढलती है तो कभी लघुकथा का रूप लेती है । लघुकथा पलभर को ऐसा झकझोर कर रख देती है कि शुरू हो जाता है मानस मंथन।

शनिवार, 5 फ़रवरी 2022

समीक्षा


"टकराती रेत" लघुकथा संग्रह की समीक्षा 

                     डॉ मंजू रानी गुप्ता 

 मैं डाॅ• मंजु रानी गुप्ता की बहुत शुक्रगुजार हूँ। अभी हाल में ही उन्होंने मेरे लघुकथा संग्रह -टकराती रेत 'की समीक्षा लिखकर भेजी है। जो मेरे लिए एक आश्चर्य से कम न था। मैंने उनको यह संग्रह भेजा भी न था। पर उन्होंने मेरे ब्लॉग तूलिकासदन से इस संग्रह की लघुकथाओं को बड़ी  मेहनत से एकत्र किया व उनका अवलोकन कर अति  बारीकी से विश्लेषण  किया है । उनका बार बार - धन्यवाद । 

मंजु जी ने 1971 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से एम• ए• की परीक्षा उत्तीर्ण कर,1975 में " प्रेमचंद कथा साहित्य में सामाजिक जीवन " शोधग्रंथ पर पी•एच• डी• की उपाधि प्राप्त की ।रानी बिड़ला गर्ल्स कॉलेज क़लक़त्ते में एसोसियेट प्रोफ़ेसर तथा विभागाध्यक्ष के पद पर कार्यरत रहीं ।
आकाशवाणी कोलकाता तथा दूरदर्शन पर आपके कार्यक्रमों का प्रसारण होता रहा है।विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कहानी,लेख एवं कविताओं का भी भरपूर प्रकाशन होता रहता है। आजकल महिलाओं की संस्था "साहित्यिकी" से संबद्ध हैं। कुछ वर्षों तक" साहित्यिकी " पत्रिका का संपादन कार्य वहन किया। संप्रति- वे साहित्य लेखन से जुड़ी हुई हैं ।


" टकराती रेत"
श्रीमती सुधा भार्गव
समीक्षा- मंजु रानी गुप्ता


" टकराती रेत " श्रीमती सुधा भार्गव का एक ऐसा लघु कथा संग्रह है, जो समकालीन होते हुए भी आधुनिक है ।यहाँ स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि समकालीन शब्द कालबोधक है जब कि आधुनिक शब्द मूल्यबोधक भी।कथाएँ स्वतःस्फूर्त हैं और इनका उद्देश्य यथार्थ का उद्घाटन कर जनचेतना को जगाना है ।कथाएँ गहरी संवेदना व व्यापक सहानुभूति से युक्त हैं तथा लेखिका की निरीक्षण शक्ति का परिचय देती हैं ।संग्रह की प्रथम कथा " कीमत " विदेश में रहनेवाले बेटे की संवेदनहीनता को अभिव्यक्ति देती है, जो प्यार से भेजी गई मिठाई की कीमत नहीं समझता ।
कतिपय कथाएँ उन प्रवासी परिवारों की मानसिकता को व्यक्त करती हैं, जो विदेश में रहकर भी अपनी संस्कृति और सभ्यता से जुड़े हुए हैं।
समकालीन रचनाकार का कर्म है कि वह सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक संकट की स्थिति को दर्शाए और व्यक्ति को इनसे लड़ने की हिम्मत दे ।'बंद ताले कथा, विवाह हेतु आए बारातियों की मानसिकता का यथार्थ चित्रण करते हुए, उनके दिमाग के बंद ताले खोलती है ।' दूध का कर्ज ' कथा लिंग भेद करनेवालों पर प्रश्न उठाती है ।'सन्नाटे की रेखाएं ' मृत्यु के उपरांत किए गए कर्मकांडों पर प्रहार करती है।पति की मृत्यु के बाद पत्नी बेहाल है किन्तु उसकी सूनी मांग की ओर किसी का ध्यान नहीं, परिजन तो तेरहवीं के निमंत्रण में अधिक रुचि रखते हैं।'बंदर का तमाशा ' की निर्धन युवती उन गरीबों का प्रतिनिधित्व करती है जो बच्चों तक का तमाशा बनाने पर वाध्य हैं ।नंग-धड़ंग बालक बंदर की भूमिका में नाचता है और विडंबना यह है कि आम जनता नृत्य का आनंद उठाती है। कथा मौजूदा व्यवस्था की व्यंग्यपूर्ण आलोचना करती है। 'कमाऊ पूत 'का बाँके सब्जी मंडी में सब्जी बेचने जाता है, साथ ही माँ की दी हुई उन पानी की बोतलों को साथ ले जाता है जिन्हें माँ ने जरूरतमंद को जल पिलाने के लिए दिया है किन्तु वह उन बोतलों को बेचकर पैसे कमाता है। यह नई पौध है जो जीविका के लिए पानी भी बेच सकती है, किन्तु बाँके निर्धन है उसके लिए थोड़े पैसे भी बहुत मायने रखते हैं।' होलिका का मंदिर 'में मानव की नैतिकता पर प्रश्न उठाया गया है। धर्म के नाम पर मंदिरों में धन- दौलत चढ़ाए जाते हैं लेकिन जरूरतमंद की मदद करने से लोग कतराते हैं ।
कथाएँ संक्षिप्त और सारगर्भित हैं।लेखिका की सकारात्मक दृष्टि चेतना को ऊर्जा प्रदान करती है।'वह आएगा ' 'महोत्सव ' 'असली हिन्दुस्तान ' ऐसी ही कथाएँ हैं।' ' सूरज निकला 'की दलित माँ बेटे के निराश हृदय में आशा की ज्योति जलाते हुए कहती है कि 'पैंसठ वर्षों बाद सूरज तो निकला।हाँ इसकी रोशनी फैलने में समय जरूर लगेगा।'
आज की नई पीढ़ी अपनों से दूर होती जा रही है 'ससुर जी ' और ' दर्द का संगम' जैसी कथाएँ इसी भाव पर आधारित हैं ।प्रायः युवतियाँ धन- दौलत के लोभ में पड़ कर ससुराल में परिजनों को अपनाने में असमर्थ रहती हैं।'दुनियादारी'कथा सकारात्मक ऊर्जा से भरपूर्ण है, यहाँ घर- घर खाना बनाने वाली निर्धन स्त्री अपने अथक परिश्रम से परिजनों के लिए घर बनवाने का स्वप्न देखती है किसी प्रकार का स्वार्थ नहीं,प्यार का प्रकाश है जो निरंतर फैल रहा है।
कथाएँ परिवार और समाज की समस्याओं को उकेरतीं हैं।ये बचपन ,यौवन और वृद्धावस्था की आम समस्याओं से जुड़ी हुई हैं, तथा पाठकों की चेतना को झकझोरती हैं।लेखिका सहज और बोधगम्य भाषा- शैली में अपना कथ्य पाठकों तक पहुँचाती हैं ।
कुल मिलाकर लघु कथाएँ मानवीय सत्य तथा यथार्थ से संम्पृक्त हैं ।
समाप्त 


लघुकथा


संरचना -13,2020 वार्षिकी  में मेरी लघुकथा  'पालना 'प्रकाशित हुई है। इसके संपादक वरिष्ठ लघुकथाकार कमल चोपड़ा जी हैं। उनका बहुत बहुत धन्यवाद 

 लघुकथा -पालना
सुधा भार्गव

        पहली किलकारी सुनने से पहले ही अविनाश ने बच्चे का कमरा तो तैयार करवा दिया था पर किसी कारण वश पालना नहीं ख़रीद पाया । बच्चे को माँ के साथ सोते सवा महीना हो चुका था ।अब वह पालना ख़रीदने को बेचैन हो उठा । बच्चे को अलग सुलाने का वह पक्षपाती था ताकि उसका ठीक से विकास हो सके और स्वस्थ रहे ।
उसने एमोज़ोन पर २-३ पालने पसंद किए । पत्नी को दिखाते हुए बोला -
      “इनमें से कोई एक पसंद कर लो।”
     “बच्चे को अभी अलग सुलाने की ज़रूरत नहीं । मैं इसके बिना नहीं सो सकती ।”उसने रोषभरी आँखों से देखा।
      “फिर उसको अपने कमरे में सोने की आदत कैसे पड़ेगी ?”
      “जब समय आएगा आदत भी पड़ जाएगी ।”रुखाई से बोलकर बच्चे की तरफ़ करवट ले ली।
दाल न गलने पर अविनाश झुकता सा बोला -”ठीक है कुछ दिन और सही पर पालना तो पसंद कर दो और हाँ यह भी बता दो उसका तकिया कैसा होना चाहिए ?”
    “मैं अक्सर थक कर माँ की गोद में सो ज़ाया करती ।बिस्तर पर नींद आती ही नहीं थी। माँ तो बैठे बैठे ही न जाने कब कब में झपकी ले लेती। पर उस समय भी चेतन रहती थी। जिधर भी मैं सिर घुमाती ,माँ उसीके अनुसार घुटनों को हिलाकर गड्ढा बना देती और मेरा सर आराम से उस पर टिका रहता।बस तकिया ऐसा ही होना चाहिए ।जरा भी कुनकुनाती तो माँ अपना एक घुटना हिलाने लगती, मुझे लगता मैं पालने में झोटे खा रही हूँ ।फिर सो जाती। एकदम ऐसा ही तकिये वाला पालना खरीद लाओ। हाँ एक चादर भी तो लानी होगी। ।"
     "चादर कैसी हो --वह भी बता दो।"
     "मैं तो माँ की धोती से लिपट कर ही सो जाया करती थी । उसमें उसकी खुशबू जो आती थी ।" मुंह पर मीठी सी हंसी लाते हुए न जाने वह कहाँ खो गई ।
अविनाश पहले तो असमंजस में था फिर एकाएक हंस पड़ा और चुटकी लेते हुए पूछ ही लिया -
    “पालने में कोई म्यूज़िकल टॉय तो लगाना होगा । कैसा खिलौना लाऊँ?
    “ खिलौना भी ऐसा हो जिसमें से माँ की लोरी सा संगीत सुनाई दे और मेरा चुनमुन झट से सो जाए ।”
अविनाश को अब अपनी पत्नी की बातों में आनंद आने लगा था जिसके तार बेपनाह मोहब्बत से जुड़े हुए थे। उसने एक प्रश्न और दाग दिया
    “अच्छा मैडम ,पालने के ऊपर जाली वाली एक छतरी भी तो लगानी जरूरी है जो हमारे बच्चे को मक्खी -मच्छर से बचाये।”
    “हूँ--- छतरी तो माँ के पल्लू की तरह हो तो ज्यादा अच्छा है जो मक्खी- मच्छर से ही नहीं उसे सर्दी-गरमी और लोगों की काली नजर से भी बचाये।"
     अविनाश ने भरपूर निगाहों से पत्नी को निहारा । फिर अपने हाथ में उसका हाथ लेकर बोला--”ऐसा पालना तो तुम्हारे पास पहले से ही है !"
     "मेरे पास ?" विस्मय से उसने देखा।
    “हाँ हाँ तुम्हारी गोदी! गोदी क्या पालने से कम है जिस पर हमेशा तुम्हारी ममताभरी बाहों का चंदोबा तना रहता है। !”
     पत्नी के सूखे होंठ प्रेममयी बारिश की बूँदों से तरल हो उठे ।
     उसने फुर्ती से अपने चुनमुन को कलेजे से लगा लिया । ममता की महक से सोते हुए नवजात शिशु के गुलाबी होठों पर मुस्कान थिरक उठी ।
समाप्त