वेदना-संवेदना के बीहड़ जंगलों को पार करती हुई बड़ी खामोशी से तूलिका सृजन पथ पर अग्रसर हो अपनी छाप छोड़ती चली जाती है जो मूक होते हुए भी बहुत कुछ कहती है । उसकी यह झंकार कभी शब्दों में ढलती है तो कभी लघुकथा का रूप लेती है । लघुकथा पलभर को ऐसा झकझोर कर रख देती है कि शुरू हो जाता है मानस मंथन।

बुधवार, 14 जुलाई 2010

लघुकथा

व्यथा पुंज /सुधा भार्गव











-रोनी सी सूरत क्यों बना रखी है !

-बच्चा समान वह नाजुक सा नई-नई कोंपलों वाला पौधा कल तक तो यहीं था आज गायब है| मेरे बुजुर्गों में से तो चाहे जब कोई गायब हो जाता है | अपनों का बिछोह अब सहन नहीं |

-तुम्हारे हरे -भरे संसार की सुरक्षा की तो पूरी व्यवस्था लगती है |

-जिनके ह्रदय में कंटीली झाड़ियाँ उग आई हैं उनके लए सब कुछ संभव है | अफसर बाहर छुट्टी पर गया है | लौटेगा तो पता लगाएगा किसने किया - - - |
तब तक तो मैं भी रहूँ या न रहूँ - - - - हिचकियाँ बंध गईं उस व्यथा पुंज की |

दिन के उजाले में भी मेरी आँखों के सामने अँधेरा छा गया |ठंडी हवा शरीर को जलाने लगी |शायद उसके दुःख की आंधी का असर था कि मैं डगमगाया - -,सुदर्शन सा वृक्ष डगमगाया - - - फिर हर कोई |
लेकिन तनकर कोई सामने नहीं आया जिससे काटने वाले की कुल्हाड़ी पर कुल्हाड़ा चल सके |

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