वेदना-संवेदना के बीहड़ जंगलों को पार करती हुई बड़ी खामोशी से तूलिका सृजन पथ पर अग्रसर हो अपनी छाप छोड़ती चली जाती है जो मूक होते हुए भी बहुत कुछ कहती है । उसकी यह झंकार कभी शब्दों में ढलती है तो कभी लघुकथा का रूप लेती है । लघुकथा पलभर को ऐसा झकझोर कर रख देती है कि शुरू हो जाता है मानस मंथन।

शनिवार, 25 अप्रैल 2015

लघुकथा



नई पौध /सुधा भार्गव 

तैल चित्र 
वह एक ऐसा मदरसा था जिसमें हिन्दू –मुसलमान दोनों के  बच्चे पढ़ने आते थे। एक बार मौलवी साहब उधर से गुजरे। अहाते मेँ बच्चे प्रार्थना कर रहे थे। एक बच्चे को पहचानते हुए उनका तो खून खौल उठा  -अरे सलीम ने अपने बेटे को  मेरे पास भेजने की बजाय इस मदरसे मेँ दुश्मनों के चूजों के साथ पढ़ने भेज दिया। लगता है उसकी मति मारी गई है।

दूसरे दिन पंडित जी अपना जनेऊ संभालते हुए मदरसे के सामने से निकले। टिफिन के समय बच्चे मदरसे के बाहर खेल रहे थे। ।उनकी निगाह अपने यजमान के बेटे पर पड़ गई । उन्हें तो साँप सूंघ गया--- काफिरों के साथ हिन्दू के बेटे! हे भगवान अब तो इसके घर का पानी भी पी लिया तो नरक मेँ भी जगह नहीं मिलेगी। राम –राम –राम कहते आगे बढ़ गए।

दोनों को रात भर नींद नहीं आई । सुबह ही कुछ कर गुजरने की धुन मेँ मदरसे की ओर चल दिए। पंडित सोच रहा था –आज हिन्दू के बच्चे को मदरसे मेँ घुसने ही नहीं दूंगा। उधर मौलवी इस उधेड़बुन मेँ था –किसी भी तरह सलीम के बच्चे का कान खींचते हुए उसके बाप के घर न पहुंचा दिया तो मैं मौलवी नहीं। दोनों एक ही रास्ते पर जा रहे थे,एक ही स्थान पर पहुँचना था पर सांप्रदायिक भावना की मजबूत जकड़ ने उन्हें एक दूसरे से बहुत दूर ला पटका था। भूल से आँखें चार हो जातीं तो घृणा से मुंह फेर लेते।

इनके पहुँचने के समय तक  मदरसा बंद था मगर बहुत से बच्चे उसके बाहर खड़े  खुलने का इंतजार कर रहे थे। उनमें सलीम का बेटा भी था ।
मौलवी जी ने उसे धर दबोचा -–बरखुरदार ,तुम इस मदरसे मेँ पढ़ने क्यों चले आए?हमने तो तुम्हारे वालिद साहब को पढ़ाया है। तुमको भी हमारे पास आना चाहिए।   
-मौलवी साहब मेरे वालिद साहब को रामायण की सीरियल देखना बहुत अच्छा लगता है । वे तो इसे पढ़ना भी चाहते है पर हिन्दी नहीं जानते । मैं यहाँ हिन्दी सीखकर उन्हें रामायण पढ़कर सुनाऊंगा।
मौलवी का मुंह लटक गया।

उधर पंडित ने अपने यजमान के बेटे को जा घेरा- बेटे,मुसलमानों के इस मदरसे मेँ तुम क्या कर रहे हो। तुम्हारे लिए इससे भी अच्छे स्कूल है पढ़ने के लिए।
-पंडित जी,पिताजी गजल शायरी के बहुत शौकीन है, वे खुद मिर्जा गालिब की गजलें पढ़ना चाहते है। मैं उर्दू सीखकर उनको गजलें सुनाऊँगा और सोच रहा हूँ-उन्हें उर्दू भी सिखा दूँ।
धर्मसंकट में पड़े पंडित का हाथ अपने जनेऊ पर जा पड़ा।

मदरसा खुलने पर बच्चे हाथ मेँ हाथ डाले उछलते कूदते अंदर भाग गए और मौलवी व पंडित एक दूसरे को ठगे से देखने लगे। चुप्पी तोड़ते हुए पंडितजी बोले –चलो मौलवी –लौट चलें। एक नई पौध जन्म ले रही है। 

 अंतर्जाल पत्रिका साहित्य शिल्पी में प्रकाशित। उसकी लिंक है-
http://www.sahityashilpi.com/2015/04/nayepaudh-shortstory-sudhabargava.html

7 टिप्‍पणियां:

  1. प्रविष्टि के लिए बहुत बहुत धन्यवाद ।

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    1. शशि जी
      अमूल्य टिप्पणी के लिए आपको धन्यवाद । गद्य कोश में आपकी लघुकथाएँ पढ़कर बहुत अच्छा लगा। ब्लॉग सपना भी देखा। आशा है इसी प्रकार सहयोग बनाए रखेंगी।

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  3. सुधा जी बेशक आप का उद्देश्य ठीक हो पर इस तरह कृत्रिम कथा वस्तु प्रभावित नही करती हैं हिन्दू का कभी इस तरह की बैटन पर खून नही खुलता अपितु मुसलमान ही किस एनी मत सम्प्रदाय या धर्म को कभी स्वीकार नही करते हैं उन के अनुसार यह पाप है और न ही वे अपने मत से किसी की बराबरी चाहते हैं इस्लाब छोटी २ बैटन पर भी खतरे आ जाता है यह उन की समस्या है न की हिन्दू की

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    1. वेद जी आपके विचारों का स्वागत है। उत्तर प्रदेश रामपुर में वास्तव में ऐसा मदरसा है जहां हिन्दू -मुसलमान दोनों के बच्चे पढ़ते हैं और एक नई पौध जन्म ले रही है। आप नेट पर देख सकते है। उसी से प्रभावित होकर मैंने यह लघुकथा लिखी। इस प्रकार का साहित्य तो अवश्य होना चाहिए जिससे आने वाली पीढ़ी की नसों में भेदभाव का जहर न घुले।

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  4. सुन्दर व सार्थक रचना प्रस्तुतिकरण के लिए आभार..
    मेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका इंतजार...

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