वेदना-संवेदना के बीहड़ जंगलों को पार करती हुई बड़ी खामोशी से तूलिका सृजन पथ पर अग्रसर हो अपनी छाप छोड़ती चली जाती है जो मूक होते हुए भी बहुत कुछ कहती है । उसकी यह झंकार कभी शब्दों में ढलती है तो कभी लघुकथा का रूप लेती है । लघुकथा पलभर को ऐसा झकझोर कर रख देती है कि शुरू हो जाता है मानस मंथन।

बुधवार, 24 मार्च 2010

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लघुकथा

घिराव /सुधा भार्गव



जावित्री की साध थी कि डाक्टर बेटे के लिए बहू भी डाक्टर हो | बधाई देने वालों का ताँता लग गया |
विवाह के अवसर पर सावित्री बोली --जावित्री तेरी तो मन की मुराद पूरी हो गयी |
-हाँ दीदी !कल तो गीत संध्या है | बहू का नाच होगा |बहू नाचना जानती है | डाक्टर होते हुए यह हुनर भी है |
खाना
चाहती हूँरा कम आता विवाह की भेद विवाह की ज्ज्ज्जज |मैं तो अपनी बहू को सर्वगुण संपन्न देखना











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