वेदना-संवेदना के बीहड़ जंगलों को पार करती हुई बड़ी खामोशी से तूलिका सृजन पथ पर अग्रसर हो अपनी छाप छोड़ती चली जाती है जो मूक होते हुए भी बहुत कुछ कहती है । उसकी यह झंकार कभी शब्दों में ढलती है तो कभी लघुकथा का रूप लेती है । लघुकथा पलभर को ऐसा झकझोर कर रख देती है कि शुरू हो जाता है मानस मंथन।

रविवार, 26 जून 2022

लघुकथा


लघुकथा कलश में प्रकाशित मेरी एक लघुकथा 




औलाद है मेरी  

"अब अपना काम भी समेटो और सामान भी। आखिर बुढ़ापा है माँ तुम्हारा । हमें तो यह पुराने जमाने का कुछ चाहिए नहीं । जिसे देना है दो ,जिसे बांटना है उसे बाँटों। और हाँ ,इन पेंटिग्स का क्या होगा जिनमें तुम्हारी जान बसी है।"  

"चिंता न कर । अपनी  छाती पर रख कर ले जाऊँगी।" माँ की 

पीड़ा शब्दों से फूट पड़ी। 

"ये हो पाता तो शायद कुछ न कहता।" 

"क्यों न हो सके। चिता को आग देते समय  उठती लपटों पर रखदेना  ,सब धूँ धूँ  कर जल उठेगा।" 

"माँ मज़ाक में न लो। मेरी बात ध्यान से सुनो।" 

"तो मेरी बात भी ध्यान से सुन । मैं इनके बिना जीते जी तिल तिल नहीं जलना चाहती।" 

"माँ तुम कहना  क्या चाहती हो?" 

"मैंने तुझे तो पेट में नौ माह ही रखा है। मेरी कुछ पेंटिंग्स को तैयार होने में तो दो दो साल लग गए। उनको निहारती रहती ,उनके इर्दगिर्द चक्कर लगाती कि कब वे पूरी तरह से तैयार हों । मैं बिना सोचे समझे न किसी को दे सकती हूँ। और न पानी में बहा सकती हूँ। ये मेरी औलाद है औलाद ।तू हाड़ मास का होते हुए भी इतनी सी  बात नहीं समझता कि सृजन करने वाला संहारक कैसे बन सकता  है ।"

उसके अन्तर्मन की व्यथा नाक से टपटप बहने लगी जो उसके पल्लू में समा गई।