माँ /सुधा भार्गव
-बेटा ,एक ही बिल्डिंग में आमने- सामने के
फ्लैट में हम लोग रहते हैं मगर मिले मुद्दत हो गई ।
-मुद्दत
--!कमाल करती हो माँ !तीन दिन पहले ही तो आया था ।
-तीन दिन
ही सही ,हमारे लिए
तो तीन युगों के बराबर हैं ।
-क्या
बताऊँ --!दफ्तर में बहुत काम था । देर से घर आया । आते ही बच्चे चिपट गए । दो घंटे
खाना- खिलाना ,हंसी
-ठट्ठा चलता रहा ।
-यह तो
अच्छी बात है , तुम
बच्चों को इतना प्यार करते हो ,आफिस में भी याद करते होगे । पर एक बात भूल जाते हो --हम भी अपने बच्चे के
आने की राह तकते हैं । तुम्हारी शक्ल अपने सामने चाहते हैं ,उसे छू कर बात करना चाहते हैं । लेकिन
तुम ---तुम्हारी तो नजरे ही नहीं उठतीं हमारी ओर --बात करना तो दूर । फोन से ही एक
बार पूछ लेते --पापा कैसे हो ?
उनकी तरफ
मुड़ते हुए उसने पूछा --- आप कैसे हो ?
पापा देख
नहीं सकते थे पर कानों में बेटे की आवाज पड़ते ही लगा जैसे निर्जन वन में ठंडी
फुआरें पड़ रही हों |
-पापा ,माँ मेरी बात नहीं समझ पातीं पर आप तो
समझ सकते हैं --
मैं अकेली
जान कहाँ -कहाँ जाऊं--। बच्चों को देखूँ कि बीबी को देखूँ --यहाँ आऊँ या आफिस
जाऊं।
बेटे के
मुख पर परेशानी की लकीरें देख माँ हिल उठी मानो उसके अंग अंग की धज्जियाँ उड़ रही
हों ।
--मेरा तो
बुढ़ापा है ,शायद बेटा
,-- सठिया गई
हूँ । न जाने क्या -क्या कह गई । कहे सुने को यहीं दफन कर दे ।
एक हाथ से
उसने कलेजा थाम रखा था और दूसरा हाथ था वृद्ध के कंधे पर ।
* * * * *
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