लघुकथा कलश का प्रयोगात्मक लघुकथा विशेषांक
2023 में प्रकाशित मेरी दो लघुकथाएं -
साथ ही योगराज प्रभाकर जी का बहुत बहुत धन्यवाद जिनके कारण लघुकथाकारों को नई शैली की लघुकथा लिखने का उत्साह मिला और वे सफलता पूर्वक लिखी गईं।
शादी का ठप्पा व अकेलापन
लघुकथा कलश का प्रयोगात्मक लघुकथा विशेषांक
2023 में प्रकाशित मेरी दो लघुकथाएं -
साथ ही योगराज प्रभाकर जी का बहुत बहुत धन्यवाद जिनके कारण लघुकथाकारों को नई शैली की लघुकथा लिखने का उत्साह मिला और वे सफलता पूर्वक लिखी गईं।
शादी का ठप्पा व अकेलापन
अंकुर
किटकू का नियम था कि शाम को जैसे ही फुटबॉल खेलकर लौटता उसके जूते- मौज़े हवा में कलाबाज़ियाँ करते दिखाई देते और फुट बॉल लुढ़कती हुई नाली में दम तोड़ती सी लगती ।लाख बार समझाया होगा कि घर को युद्ध का मैदान न बनाया कर पर वह ठहरा पूरा का पूरा चिकना घड़ा। लेकिन उसमें एक अच्छी बात थी कि वह कितना भी थका हो पर जल्दी ही अपनी प्यारी दादी के सामने पूरे दिन का चिट्ठा खोलकर बैठ जाता। आज भी कुछ ऐसा ही हुआ। पसीने से लथपथ हाँफता हुआ आया। ।जूते मोज़े और फुट बॉल से छुटकारा पा चिल्लाया -“ ऐ गोपी जरा ठंडा -ठंडा पानी तो दे जा।”
बेटा उस गरीब के पैर में मोच आ गई है ,तू ही बढ़कर ले ले।”
“उफ --माँ --माँ कहाँ हो ?मैं बहुत थक गया हूँ ,मुझे पानी दे जाओ।”
माँ सारे काम छोड़ लाडले की आवाज सुन पानी का गिलास लेकर दौड़ी आई। गला तर कर किटकू का न्यूज चैनल शुरू-“दादी माँ --दादी माँ जानती हो आज मास्टर जी ने क्या कहा ?”
चश्में से दो आँखें झाँकीं जिनमें ढेर सा कौतूहल भरा था।
“वे कह रहे थे देश को आत्मनिर्भर बना ना हैं।”
“हूँ पहले बच्चों को तो आत्मनिर्भर बना लें।” दादी बड़बड़ाईं।
“क्या बोली दादी?”
“अरे क्या बोलूँ !यही बोलूँ कि बच्चे तो फली तक न फोड़ें । जो अपना काम न कर सके वो देश के लिए क्या करेगा।”
किटकू खामोश सा जमीन देखता रहा । फिर उसने अपने जूते- मोजे उठाए और करीने से शू हाउस में रख दिये।
बंजर भूमि पर उगते पौधे को देख दादी चौंक गई। उसकी आशा पौधे की परिक्रमा करने लगीं।
"अब अपना काम भी समेटो और सामान भी। आखिर बुढ़ापा है माँ तुम्हारा । हमें तो यह पुराने जमाने का कुछ चाहिए नहीं । जिसे देना है दो ,जिसे बांटना है उसे बाँटों। और हाँ ,इन पेंटिग्स का क्या होगा जिनमें तुम्हारी जान बसी है।"
"चिंता न कर । अपनी छाती पर रख कर ले जाऊँगी।" माँ की
पीड़ा शब्दों से फूट पड़ी।
"ये हो पाता तो शायद कुछ न कहता।"
"क्यों न हो सके। चिता को आग देते समय उठती लपटों पर रखदेना ,सब धूँ धूँ कर जल उठेगा।"
"माँ मज़ाक में न लो। मेरी बात ध्यान से सुनो।"
"तो मेरी बात भी ध्यान से सुन । मैं इनके बिना जीते जी तिल तिल नहीं जलना चाहती।"
"माँ तुम कहना क्या चाहती हो?"
"मैंने तुझे तो पेट में नौ माह ही रखा है। मेरी कुछ पेंटिंग्स को तैयार होने में तो दो दो साल लग गए। उनको निहारती रहती ,उनके इर्दगिर्द चक्कर लगाती कि कब वे पूरी तरह से तैयार हों । मैं बिना सोचे समझे न किसी को दे सकती हूँ। और न पानी में बहा सकती हूँ। ये मेरी औलाद है औलाद ।तू हाड़ मास का होते हुए भी इतनी सी बात नहीं समझता कि सृजन करने वाला संहारक कैसे बन सकता है ।"
उसके अन्तर्मन की व्यथा नाक से टपटप बहने लगी जो उसके पल्लू में समा गई।
सुधा भार्गव
1-वात्सल्य की हिलोरें
सोहर गाई जा रही थी । सोहर गीत पीड़ा और आनंद के खट्टे -मीठे अनुभवों से लबालब भरे हुये थे। जच्चा बनी वह बिस्तर पर लेटे प्रसव की पीड़ा को भुला मातृत्व के अनोखे आनंद में डूबी हुई थी। बधाइयों का ताँता लगा हुआ था। बच्चे के पैदा होते ही घर में खुशियों की भरमार जो हो गई थी। । अचानक घर से बाहर तालियों की थाप पर बहुत से स्वर गूंज उठे। 'अम्मा तेरा बच्चा बना रहे। तेरे आँगन में फूल खिलें । हाय हाय कितनी देर हो गई बालक कू तो दिखा दे । नहीं तो घर में ही घुस जाएँगे । फिर न कहियों हम ऐसे हैं ।' पुन
:वही तालियों की थाप। अंतिम वाक्य सुनते ही जच्चा काँप उठी। समस्त ज़ोर लगाकर चिल्लाई -"इनको जो चाहिए दे दो। बच्चा तो अभी अभी सोया है।"
"अइयो रामा तेरे कलेजे का टुकड़ा हमारा भी तो कुछ लगे है।ठप्प ठप्प … चट्ट चट्ट --कैसे छोड़ देंगे अपनी जात के को।" एक बोली
"ला-- ला हमारी गोद में डाल दे।" दूसरी बोली।
बच्चे को उठाए लड़खड़ाती जच्चा बाहर आई। कातर स्वर में बोली-"न न अभी नहीं। कुछ दिन मेरी गोदी में खेलने दो। कितनी मुश्किल से गोद हरी हुई है । इसके बिना मैं मर जाऊँगी। कैसा भी है मेरा खून है।"
"माई बड़ी -बड़ी बात न कर । क्या तू इसके लिए अपने पूरे समाज से लड़ सकेगी ।"
"हाँ हाँ क्यों नहीं!। आज तुम अपने अधिकारों की बात करती हो तो इससे तो इसका अधिकार न छीनो। माँ -बाप और घर से उसे अलग करके तुम्हें क्या मिलेगा!"
"अरी प्रधाना तू क्यों चुप है। कुछ बोलतीं क्यों नहीं! तू तो पढ़ी लिखी है । मेरी समझ में इसकी बात धिल्लाभर ना आ रही। "प्रधाना की साथिन ही हाथ नचाते बोली ।
प्रधाना दूसरी दुनिया में ही खोई थी । ‘अपने से अलग करते समय माँ ने उसे कितना चूमा चाटा था । आँचल फैलाकर रुक्का बाई से दया की भीख मांगी थी। पर वह न पिघली तो न ही पिघली । माँ की पकड़ से खीचते हुए वह उसे दूर बहुत दूर ले गई।’उसकी आँखों से दो आँसू चूँ पड़े।
"अरे किस दुनिया में खो गई।" उसकी साथिन ने झझोड़ते हुए कहा।
प्रधाना ने चौंक कर जच्चा की ओर देखा । वह एक माँ की तड़पन देख चुकी थी। एक और माँ को बिलखता देखने की शक्ति उसमें नहीं थी।
उसने एक पल गोद में लिए जच्चा को ऊपर से नीचे तक देखा। फिर दृढ़ता से बोली-‘हम यहाँ बच्चे को आशीर्वाद देने आए हैं उसे लेने नहीं।’
2-धन्ना सेठ
“ आज पहला लॉक डाउन ख़तम होने वाला था।पर उससे पहले ही दूसरे लॉक डाउन की घोषणा हो गई । है।यह तो ३ मई तक चलेगा ।”
“हाँ सिम्मी , पिछले महीने का पैसा तो बाई को दे दिया है ।उसने तो १९ तारीख तक ही काम किया था पर पप्पू के पापा तो इतने रहम दिल हैं कि क्या बताऊँ !बोले- पूरे माह का ही दे दो। सो भइया 10 दिन का ज्यादा ही उसे मिल गया ।लेकिन इस माह तो पूरे महीने काम पर बाई नहीं आएगी सो उसे तनख्वाह देने की कोई तुक ही नहीं ।”
“लेकिन बाई का तो कोई कसूर नहीं ।चाहकर भी न आ सकी ।”
“भई मैं तो सब काम नियम -कायदे से करती हूँ।”
“शकीला ,कभी -कभी मानवीयता की खातिर नियम- कायदे ताक पर रखने पड़ते हैं ।२-3 हजार देने से न तुझे कोई कमी होगी न घर भरेगा पर बाई के बच्चों का पेट भर जाएगा ।उनके चेहरे एक बारगी खिल उठेंगे ।”
“मैंने क्या उसके पूरे कुनबे का ठेका ले रखा है!”शकीला चिढ़ सी गई।
“ऐसी ही बात समझ। साल- साल बाई हमारे काम करती है । एक दिन न आएं तो कितनी परेशानी हो जाती है । फिर उनकी परेशानी में हम काम क्यों न आएं ।यह तो फर्ज बनता है ।”
“फर्ज तो तभी निभाया जाता है जब किसी की औकात हो ।तुम्हारा क्या! तुम तो सिठानी हो--- दो-दो होटल चलते हैं ।”
“ लोकडाउन में होटल तो बंद हैं। पर दो कर्मचारियों के रहने और खाने-पीने की व्यवस्था होटल में कर दी है। वक्त -बेवक्त शायद वे काम आ जाएँ ।”
“तो हुआ क्या फायदा उनसे--- तुम्हारे घर तो खाना बनाकर ला नहीं सकते ।बाहर निकलने पर भी तो पाबंदी है।”
“फायदे की न पूछ --इतना फायदा हो रहा है--- इतनी संतुष्टि मिल रही है कि कह नहीं सकती ! प्रवासी मजदूरों के तो खाने के लाले ही पड़ गए हैं ।नौकरी जो छूट गई !उनके कष्टों को सोच-सोच कर तो मेरे रोयें खड़े हो जाते हैं ।मेरे दोनों कर्मचारी १०० के करीब मजदूरों को दोनों वक्त का खाना बनाकर खिलाते हैं । सोच तो कितनी दुआएं देते होंगे ।”
“भगवान् जाने दुआएं देते होंगे भी! पर यह तो वही बात हुई आ बैल तू मुझे मार । पैसा तो आपदा में सोच-समझ कर ही खर्च करना होगा। सुनते हैं कोरोना दानव से निबटने के लिए सरकार को बड़ी -बड़ी फैक्ट्रियों के मालिकों से मदद चाहिए । मालिक भी अपने कर्मचारियों की जेब में ही सेंध लगाएंगे। कहने को तो पप्पू के पापा बड़ी सी फैक्टरी के मैनेजर हैं ,पर उनकी जेब पर भी न जाने कब छापा पड़ जाये ।ऐसे में तो बाई की तनख्वाह देने का सवाल ही नहीं उठता ।तेरा क्या तू तो धन्ना सेठ है ।तुझे ही दान-पुण्य का काम मुबारक हो ।
“दान पुण्य के लिए धन्ना सेठ होना जरूरी नहीं शकीला --इसका सम्बन्ध तो दिल की अमीरी से है ।”
समाप्त
"टकराती रेत" लघुकथा संग्रह की समीक्षा
डॉ मंजू रानी गुप्ता
मैं डाॅ• मंजु रानी गुप्ता की बहुत शुक्रगुजार हूँ। अभी हाल में ही उन्होंने मेरे लघुकथा संग्रह -टकराती रेत 'की समीक्षा लिखकर भेजी है। जो मेरे लिए एक आश्चर्य से कम न था। मैंने उनको यह संग्रह भेजा भी न था। पर उन्होंने मेरे ब्लॉग तूलिकासदन से इस संग्रह की लघुकथाओं को बड़ी मेहनत से एकत्र किया व उनका अवलोकन कर अति बारीकी से विश्लेषण किया है । उनका बार बार - धन्यवाद ।
मंजु जी ने 1971 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से एम• ए• की परीक्षा उत्तीर्ण कर,1975 में " प्रेमचंद कथा साहित्य में सामाजिक जीवन " शोधग्रंथ पर पी•एच• डी• की उपाधि प्राप्त की ।रानी बिड़ला गर्ल्स कॉलेज क़लक़त्ते में एसोसियेट प्रोफ़ेसर तथा विभागाध्यक्ष के पद पर कार्यरत रहीं ।कला प्रेमी
सुधा भार्गव
वह नई नवेली दुल्हन !ससुराल के रीति रिवाजों को सब समय गौर से परखा करती । लोगों की आदतों से जल्दी ही परिचित होना चाहती थी ताकि सबसे अपना तालमेल बैठा सके। जब से आई है डाइनिंग टेबल पर एक से एक सुंदर क्रॉकरी को देख हतप्रभ सी रह जाती है। इस्तेमाल होने के बाद नन्द बाई उसे बड़ी सावधानी से धोकर अलमारी में रख देती। दूसरे दिन फिर नई क्रॉकरी निकल आती है । आकर्षल बेल बूटेदार डोंगों में भरी जायकेदार सब्जी दुल्हन की भूख को कहीं ज्यादा बढ़ा देती। उसने सोचा-' कुछ दिनों की बात है फिर तो साधारण कप -प्लेट निकल ही जाएँगे। कौन रोजमर्रा में इतनी कीमती क्रॉकरी इस्तेमाल करता है।' पर यह सिलसिला रुका ही नहीं। क्रॉकरी को बदल बदलकर दुबारा इस्तेमाल किया जाने लगा। यह परिवर्तन हर दिन नयेपन का अहसास दे जाता।
एक दिन दुल्हन बोली-"माँ जी सारी क्रॉकरी बहुत ही खूबसूरत है। मुझे तो हर समय डर लगा रहता है टूट न जाए!फिर मेहमानों के लायक तो रहेगी नहीं। ऐसा करती हूँ इन सबको तो करीने से अलमारी में सजाकर रख देती हूँ। साधारण क्रॉकरी मुझे बता दीजिये। कल सुबह की चाय मैं बनाऊँगी ।''
सास ने सहर्ष अनुमति दे दी। पर अपने मन की बात कहे बिना न रही। अपने स्वर को भरसक मृदुल बनाते हुये बोली- "बहू, टूटे तो टूट जाने दे। दूसरी आ जाएगी। पर यह कहाँ का न्याय है घर वाले सस्ते कप -प्लेट में चाय पीएं और मेहमान महंगी क्रॉकरी में।खाना बनाना ही तो काफी नहीं उसे कैसे परोसा जाए यह भी तो एक कला है। इससे खाने का स्वाद दुगुना हो जाता है।"
अगले दिन बहू सुबह उठते ही स्टोर में गई। शादी में मिले पीहर के उपहारों को खोला। मनमोहक रंगबिरंगा एक टी सैट देख खिल उठी। उसे धोया और मेज पर सजा दिया। नाश्ता व चाय बनाकर बड़ी बेसबरी से घर वालों के आने का इंतजार करने लगी। नियत समय से पहले ही सब कुर्सियों पर आन विराजे। चाय की तलक कम सता रही थी ,नई बहू के हाथ की चाय पीने का शौक ज्यादा लग रहा था।मेज के नजदीक जाते ही देवर पुलकित हो उठा- "हुर्रे-- हुरे क्या नया -नया चमकदार टी सैट !
चाय की चुसकियाँ लेते ही ससुर जी बोले-"भाई इतनी अच्छी चाय तो मैं पहली बार पी रहा हूँ।"
दुल्हन प्यार पगे शब्दों में खो सी गई। सास हौने हौले मुस्करा रही थी।
समाप्त