मुफ्त की सेवाएँ/सुधा भार्गव
इस बार मैं लंदन गई तो पड़ोसी विलियम परिवार से
अच्छी ख़ासी दोस्ती हो गई। विलियम के जुड़वां बेटे हुए थे। उसकी माँ नवजात शिशुओं की
देखभाल में काफी समय बिताती। अपने पोतों के प्रति प्यार व उसकी कर्तव्यभावना को
देख मैं हैरान थी क्योंकि अब तक तो मैंने यही सुना व देखा था कि यहाँ माँ –बाप और
बच्चे सब अपने में व्यस्त और अलग –थलग रहते हैं।
उस दिन मैं विलियम की माँ से मिलने गई। वे मेरे लिए
चाय बनाकर लाईं।
–अरे आपने इतना क्यों कष्ट किया । वैसे ही आपको
बच्चों व घर का बहुत काम है।
-मुझे सारे दिन काम करने की आदत है।आजकल तो बैंक से
इन नन्हें –मुन्नों की खातिर दो माह की छुट्टी ले रखी है।
- दो माह की छुट्टी!सरलता से मिल गई?
-हाँ, बस अवैतनिक हैं।
-फिर तो काफी नुकसान हो गया।
-कैसा नुकसान !इन दो माह का वेतन मेरा बेटा देगा
क्योंकि मैं उसके लिए काम कर रही हूँ।
-बेटे –पोते तो अपने ही हैं ,अपनों से पैसा क्या लेना।
-ऐसा करने से युवा बच्चे माँ बाप की कदर नहीं जान
पाते। मुफ्त की सेवाओं का कोई मूल्य नहीं।
उसकी बातें मुझे ठीक लगीं पर क्या कभी मैं ऐसा कर
पाऊँगी?
दो संस्कृतियों की टकराहट ने मेरा चैन छीन लिया
प्रकाशित -अप्रैल अंक 'देश' के अंतर्गत
http://laghukatha.com/
हार्दिक मंगलकामनाओं के आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा कल शनिवार (11-04-2015) को "जब पहुँचे मझधार में टूट गयी पतवार" {चर्चा - 1944} पर भी होगी!
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
धन्यवाद
हटाएंसुधा दीदी बहुत अच्छा सन्देश . एकदम सटीक और सुलझी हुई लघुकथा है यह .
जवाब देंहटाएंशुक्रिया
हटाएंसटीक रचना.
जवाब देंहटाएंसुन्दर व सार्थक प्रस्तुति..
जवाब देंहटाएंशुभकामनाएँ।