अन्न देवता /सुधा भार्गव
दीनानाथ बेटे की शादी करके फूले नहीं समा रहे थे।
खुशियाँ उनसे संभाले नहीं सँभल रही थीं । दहेज में उम्मीदों से बहुत चढ़बढ़कर बेटी
के बाप ने उसकी सुख –सुविधाओं को ध्यान रखते हुए एक सुंदर सा फ्लैट और सैर सपाटे को नीली कार दे दी थी ।
दीनानाथ सोचने लगे –अब तो
समाज में मेरा ओहदा बढ़ गया है। विवाह भोज मुझे अपनी नई औकात के अनुसार ही देना
होगा ।उन्होंने औकात वालों को ही प्रेम से
आमंत्रित किया । ठीक समय पर बड़ी बड़ी कारों से रंग बिरंगे परिधानों से सुसज्जित
जोड़े उतरने लगे । हाथों में चमकीले पेपर में लिपटे उपहारों के बड़े --बड़े पैकिट
थामे हुए थे। वर -बधू को आशीर्वाद देते हुए उपहारों से मुक्ति पाई और शीघ्र ही स्वादिष्ट भोजन का जायका लेने चल दिए ।
कुछ इस आशंका से भी ग्रस्त दिखाई दे रहे थे कि देरी से पहुँचने पर खाना ही कम न पड़
जाए। बल्बों की रोशनी में मेजों की सफेद चादरें झिलमिला रही थीं और इनके ऊपर बिछी थी पत्तलें ।
हर मेज पर खातिरदारी करने को दो सेवक तैनात थे। लोग इतने अच्छे इंतजाम को देख बड़े खुश !
बड़ी नजाकत से लोग बैठने
लगे । पर कुर्सी पर पसरते ही उनकी नजाकत न
जाने कहाँ गुम हो गई। भोजन करना शुरू हुआ तो रुकने का नाम नही ले रहा था । पेट में
नमकीन –मिठाई की कई परतें लग चुकी थीं पर
पत्तलों में परोसने वाले दै दनादन कचौरी रसगुल्ले डाले जा रहे थे। मालिक का हुकुम
था कोई भरपूर पेट पूजा किए बिना घर न जाने पाए
जिससे वे तीन चार दिन तो इस भोज को याद रखे ।खाने वाले भी मना करने से हिचकिचाते। पेट
भरने से क्या होता है नियत तो नहीं भरी थी।अगर उनका वश चलता तो अपने साथ बांधकर ले
जाते । इक्का –दुक्का ही इसके अपवाद थे जो सोच -समझकर ले रहे थे और पत्तल सफाचट्ट
करके जाना चाहते थे। विनायक बाबू उन्हीं में से एक थे जो अपने सात वर्षीय बेटे और
धर्मपत्नी के साथ आए हुए थे।
उनका बेटा बोला –माँ –माँ
एक रसगुल्ला और।
-हाँ –हाँ ,एक
नहीं दो दिलवा देती हूँ ।
पास से रसगुल्ले का भगोना
लिए आदमी गुजरा ।
-सुनो ,मेरे
कन्हैया को दो रसगुल्ले तो दे दो और हाँ मेरी पत्तल में भी डाल दो। माँ ने गुहार
लगाई।
बच्चे ने एक रसगुल्ला खाया
और नाक भौं सकोड़ने लगा।
-क्या हुआ ?माँ
का दिल धुकधुक करने लगा।
-अब नहीं खाया जाता ।
-छोड़ दे –छोड़ दे ,कहीं
पेट में दर्द न हो जाए ।
वात्सल्य रस की धारा में
बाधा डालते पास बैठे पति महोदय अचानक बोल उठे-जब तू खा नहीं सकता था तो दो क्यों लिए फिर भौं टेढ़ी करके अपनी पत्नी की ओर उन्मुख हुए -तुम भी एक हो –उसने मांगा एक
और तुमने डलवा दिए दो । झूठन छोडने से क्या फायदा । घर में तो हमेशा नारे बाजी
करती रहती हो –जूठा छोडना अन्न देवता का अपमान करना है । एक –एक दाने पर नजर रखती
हो । यहाँ तुम्हारी सोच कैसे बदल गई ?
पत्नी ने इधर –उधर नजर
घुमाई और फिर पति को घूरती बोली –उफ !जरा धीरे बोलो । हर जगह उपदेश झाड़ते रहते हो।
घर की बात कुछ और होती है बाहर की कुछ और ।
(लघुकथा संकलन संरचना अंक 7,2014 में प्रकाशित )
(लघुकथा संकलन संरचना अंक 7,2014 में प्रकाशित )
भोज के आयोजनों की बढिया तस्वीर खींची है आपने दीदी । यह तो परोसने की व्यवस्था है लेकिन बुफे में भी लोग किस तरह प्लेट भर लेते हैं जैसे कि फिर उन्हें कुछ मिलेगा ही नही । जाने क्यों लोग नही समझते कि माल पराया है लेकिन पेट तो पराया नही । और खाद्य पदार्थों के दुरुपयोग का मसला तो है ही ।
जवाब देंहटाएंगिरिजा जी
हटाएंशुभ प्रभात
लैपटॉप की खिड़की खोलते ही आपकी टिप्पणी मिली लगा आक्सीजन ही आक्सीजन दिमाग में घुस गई है। साभार
सुधा भार्गव
SUNDAR
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