बेड़ियों की जकड़न /सुधा भार्गव
तिरुपति मंदिर |
-क्यों ?
-मानसिक विक्षिप्त है I बुढ़ापे में सहारा बनने की बजाय पिता पर बोझ बन गया है हरियाI
-इलाज तो कराया होगा I
-हाँ, उधार लेकर। अब बूढ़ा बाप मटकी बनाकर हजार आस लिए बाजार जाता है और सस्ते में बेचकर लौटता हैI कभी -कभी तो लागत का खर्चा भी नहीं निकल पाता। –अनुदान देने वाला कोई माई का लाल नहीं मिलाॽ
-कुछ ना पूछो! सहायता पाने को भागते-भागते एड़ियाँ घिस गईं। न सरकारी सहायता मिली न किसी धन्ना सेठ का दिल पिघला।
-सुना है तुम तिरुपति बाला जी जा रहे होI
-हाँ, बीस तोले सोना मंदिर में दान की झोली में डालना है I
-बीस तोले सोना! भगवान् क्या करेंगे उसकाI हरिया के नाम बैंक में क्यों नहीं जमा कर देते। ब्याज से उसका इलाज हो जायेगाI गरीब का भी भला , तुम्हारा भी भलाI
-मेरा क्या भला होगा ,जरा मैं भी तो सुनूँI
-गरीब की दुआ का सात जन्मों तक असर होता है। उसकी झोंपड़ी में ही तो ईश्वर का निवास हैI
-तुम्हारा ईश्वर रहता होगा झोंपड़ी में, मेरा तो मंदिर में रहता है वह भी बड़ी शान से।
आकाश निरुपाय था I बेड़ियों में जकड़ी जिन्दगी तो उसे अपने दोस्त की भी लगी जो लोहे से भी अधिक मजबूत थी।
Insaan ki soch...badhiya katha.
जवाब देंहटाएंआदरणीय सुधा दी
जवाब देंहटाएंआपने एक ऐसी स्थिति को अपनी इस लघु कथा के माध्यम से उठाया है जो हमें अन्दर तक झकझोरती है.मैंने खुद देखा है कि लोग करोड़ों रूपय मंदिर में डाल आते हैं,जबकि उनके सामने ही लोग भूख,कैंसर तथा अन्य भयंकर बीमारियों से जूझ रहे होते हैं,उनकी निगाह उस तरफ जाती ही नहीं है.मेने कहीं किसी जगह पढ़ा था कि अगर कोई कहता है कि मैं ईश्वर से बहुत प्यार करता हूँ जिसे किसी ने देखा ही नहीं और जो दिखता हैं उसको नज़र अंदाज करता है तो हम कैसे मान लें कि वह ईश्वर से वास्तव में प्यार करता है.इस सुन्दर लघु कथा को पढवाने के लिए आभार.