आखेटक/सुधा भार्गव
(सृज्यमान में प्रकाशित)
(सृज्यमान में प्रकाशित)
एक जोड़ा समुद्र तट पर बैठा था। आकाश को निहारने ,लहरों की तरह अठखेलियाँ करने ही तो वहाँ गया था। उस संध्या हारा-थका सूर्य ,सिंदूरी आभा बिखेरता आकाश में जा छिपा पर उस दृश्य
की खुमारी में वह जोड़ा रात भर इतना डूबा रहा कि कब मदमाती सरिता उबलते समुद्र में
मिल गई,पता ही नहीं चला।
अगली सुबह दूर क्षितिज में शिशु
सा पैर मारता ,किलकारी भरता मणि सा सूर्य प्रकट हुआ। विकास की सीढ़ियों
पर पैर जमाता नन्हा शिशु शीघ्र ही पूर्णता को प्राप्त हुआ। जोड़े ने भी पूर्णता की ओर कदम बढ़ा दिए। इस
सुनहरे आँचल में एक -दूसरे को सहलाते।सटे –सटे से जिस्मानी भाषा की सुगबुगाहट में
वर्षों की दूरी न जाने कहाँ घुल गई। उस जोड़े मेँ
एक शिकारी था तो दूसरी नन्ही चिड़िया। फिर भी वह उसका रक्षक बना हुआ था। उसके
बाहुपाश में धूप की –सी गुनगुनाहट मिलती वह फुदकती,चहकती,गाती और बलिष्ठ हथेली पर आन बैठती। न नर न मादा,बस
दो शरीर एक प्राण ।
घोंसले में लौटते ही प्राणों की लय टूट गई। दो तन,पृथक -पृथक सांस । वह किरण फूटते ही उसे छोडकर निकल गया। घंटों बाद लौटा। आते ही आँखें
बिछा दीं, बाहें पसार दी।
वह फूट पड़ी –कहाँ गया था?
वह फूट पड़ी –कहाँ गया था?
-कहाँ गया !यहीं हूँ तेरे पास। गया था तो आ भी गया।
वही समुद्री कल्लोल,चाहत का शंखनाद।
पलक
झपकते ही वह सीप का मोती बन गई।
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