कमाऊ पूत/ सुधा भार्गव
गर्मी के दिन थे! बाँके को सब्जियाँ बेचने शहर की
मंडी जाना था। ताप से बचने के लिए उसने सवेरे ही चल देना ठीक समझा। माँ चार
रोटियों के साथ -साथ 5-6 पानी की बोतलें भी झोले में डालने लगी-
—अरे –रे यह क्या कर रही है ?आज क्या पानी ही पानी पीऊँगा।
बेटा,घड़ी-घड़ी तो गला तर
करना पड़े है। जरूरत पड़ने पर कुएं का ठंडा पानी दूसरे को भी पिला दीजो। प्यासे को
पानी पिलाने से पुण्य ही मिलेगा।
बाँके को माँ की बात जांच गई और बिना चूँ चपड़ किए
सब्जी की टोकरियों के साथ बैलगाड़ी में सारी बोतलें रख लीं। मंडी पहुँचते -पहुँचते
सूर्य देवता तमतमाए हुए पूरे ज़ोर से निकल आए।वह
पसीने से तर और गला सूखा –सूखा। पानी पीकर चैन की सांस ली बोला –आह ,कितना मीठा पानी!
अपनी तो सारी थकान मिट गई।
पास खड़े ग्राहक ने उसकी बात सुन ली। बोला -भइए,मुझे भी तो पिला
जरा पानी। गर्मी ने कहर ढा रखा है। तेरे पास तो बहुत बोतलें है। एक मुझे भी दे दे।
कितने दाम की है।
एक मिनट बाँके सोच में पड़ गया—पानी का भी दाम!न कभी
देखा न सुना।फिर भी मुफ्ती में क्यों दूँ ?
कुशल विक्रेता की तरह बोला—बाबू, ईमान का पानी है,एकदम ताजी,शुद्ध
और मीठा। एक बोतल का दाम दस रुपए।
ईमान के पानी की बात दूसरे ग्राहकों के कान में भी
पड़ गई और सब्जी से पहले पानी की बोतलें बिक गईं।
ईमान का पानी बाँके के लिए कमाऊ पूत था और इसके
सामने वह पाप –पुण्य की बात भूल गया।
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