वेदना-संवेदना के बीहड़ जंगलों को पार करती हुई बड़ी खामोशी से तूलिका सृजन पथ पर अग्रसर हो अपनी छाप छोड़ती चली जाती है जो मूक होते हुए भी बहुत कुछ कहती है । उसकी यह झंकार कभी शब्दों में ढलती है तो कभी लघुकथा का रूप लेती है । लघुकथा पलभर को ऐसा झकझोर कर रख देती है कि शुरू हो जाता है मानस मंथन।

शुक्रवार, 13 दिसंबर 2024

छटा अंक लघुकथा कलश अंक 2021

 

संस्मरणात्मक आलेख

(लघुकथा से सम्बंधित संस्मरणात्मक आलेख-लघुकथाकलश का छठा अंक-आलेख विशेषांक/जुलाई-दिसंबर/5जुलाई)

एक नया अध्याय /सुधा भार्गव

जीवन में कभी-कभी ऐसे पल  आते हैं जो इंसान को अप्रत्याशित रूप से बदल कर रख देते हैं। व्यक्तित्व बदल जाता है ,जीवनशैली बदल जाती है और उथल-पुथल मच जाती हैं भावनाओं के समुन्दर में। मेरे जीवन में भी कुछ ऐसा ही घटित हुआ जिससे  मेरे कविता के छोटे से रचना संसार में हलचल पैदा हो गई और लेखनी लघुकथा की और मुड़  गई।         

बात उन दिनों की है जब मेरा बेटा लन्दन रहता था। २००७ में मैं उससे  मिलने लन्दन गई। करीब ३-४  महीने रहना था। एक महीना तो घूमने-घामने, में मस्ती से बीत गया।डायरी लिखने का शौक था सो डायरी पर डायरी भरती गई । पर बाकी का समय खूबसूरती से कैसे बिताया जाय इस पर मनन होने लगा। पोती ने सुझाया -"अम्मा पास ही लाइब्रेरी है। एक कार्ड पर एक माह को दस दस किताबें मिल जाती हैं। मेरा कार्ड है,मम्मी का कार्ड है। दीदी का भी है. मैं कल आपको वहां ले चलूँगी।बैठे -बैठे खूब पढ़ना और घर भी किताबें ले आना ।” मेरी तो बिन कहे ही मनमुराद पूरी हो गई। सच  खुशी से उछल पड़ी। 

दूसरे दिन बड़े उत्साह से होन्सलू हाई स्ट्रीट जा पहुंचे। लाइब्रेरी वहां ट्रीटी सेंटर मॉल के अंदर है। देखकर चकित हो उठी कि  लाइब्रेरी में अंग्रेजी के साथ-साथ हिंदी ,बंगला,मराठी,गुजराती और उर्दू साहित्य की भरमार है। विदेश में भी  भारतीय भाषाओँ के प्रेमी!अंग अंग चहक  उठा 

एक ओर हिंदी वरिष्ठ साहित्यकारों की करीने से सजी पुस्तकें मेरा ध्यान आकर्षित करने लगीं। कहानी, कविता, उपन्यास का चुनाव करते -करते बीसवीं सदी की लघुकथाएं श्रृंखला का 'पाप और प्रायश्चित' खंड पर उँगलियाँ टिकी तो टिकी ही रह गईं। अलमारी के आगे खड़े -खड़े पेज पलटते -पलटते दो तीन पढ़ डाली। पढ़ते ही दिमाग में उसकी प्रतिक्रिया होनी शुरू हो गई। मैं तो खो सी गई।सारी किताबें दरकिनार कर वहां बिछे सोफे पर पसर कर उसी को पढ़ने में व्यस्त हो गई। छोटी छोटी कहानियां पर उनका गहरा असर--कभी होंठों पर हँसी थिरकने लगती तो कभी सीने में काँटा सा चुभ जाता। जातक लघु कथाएं पंचतंत्र की छोटी छोटी कहानियां तो पढ़ी थी पर ऐसी लघुकथाएं पढ़ने का मौका पहला ही था ।    

  इस श्रृंखला का संपादन बलराम ने किया है। हास्य के फ्रेम में क्या व्यंग कसा है--मेरी तो स्मृतियों में कैद हो कर रह गया। अवचेतन मन में बसी कोई न कोई लघुकथा जब तब मुखर हो उठती है। 

अब तो लालच बढ़ता ही गया। कहानी कविताओं से गुजरते हाथ लघुकथाओं को थामने  लगे. लघुकथा संकलन ‘पहाड़ का कटहल’भी लाइब्रेरी में मिल गया। नीली फ्रॉक ,चार हाथ,पेट,भूख जैसी अनेक लघुकथाएं हैं जो निर्मम यथार्थ को उजागर करती है। और हमें याद आने लगते हैं विष्णु प्रभाकर के वे शब्द ‘युगों को क्षणों में भोगने की कथा है लघुकथा।’

 

अब तो लघुकथाओं ने मेरा ऐसा मन मोह लिया कि जब भी लाइब्रेरी जाती आँखें लघुकथा संग्रह टटोलतीं। इत्तफाक की बात -वहां बलराम अग्रवाल के लघुकथा संग्रह “जुबैदा”से भी आँखें चार हो गई। उसकी एक लघुकथा मेरा बहुत दिनों तक पेट फुलाती रही। समझ नहीं आ रहा था किसे सुनाऊँ?

एक दिन सुबह मेज पर बैठे हम नाश्ता कर रहे थे।बेटा ऑफिस जाने वाला था। शाम को शायद उसकी कोई मीटिंग थी। गंभीरता का मुखौटा चढ़ाये स्वयं को उसके लिए मन ही मन तैयार कर रहा था।मैं तो उसका मुस्कराता चेहरा देखना चाहती थी --क्या करूँ!अचानक याद आ गई वही जुबैदा में संग्रहित लघुकथा 'नागपूजाजो मेरे दिमाग पर बहुत दिनों से छाई हुई  थी। बस शुरू हो गई। 

एक बात बताऊँ,बड़ी दिलचस्प है। मैंने खामोशी तोड़ी। सब मेरा मुंह ताकने लगे।लघुकथा मुड़ती मुड़ाती यूँ उमड़ पड़ी --

ऑफिस में साहब की एक नई सेक्रेटरी आई। वह क्रिश्चियन थी। पहले ही दिन उस पर खूब झाड़ पड़ी। दूसरे दिन स्कर्ट की जगह सफेद साड़ी लाल बॉर्डर की पहनकर आई। वह बड़ी सुन्दर लग रही थी। साहब उसे देखते ही रह गए। उसने दूध का गिलास उन्हें थमा दिया। वे गटागट पी गए। कब कैसे पी गए उन्हें पता ही न चला। इसी बीच सेक्रेटरी ने मेज पर रोली चावल की डिब्बी रखी।  साड़ी के पल्लू से अपना सर ढका। अनामिका और अंगूठे की सहायता से साहब की और रोली के छीटें उछालती बोली-आज नागपंचमी है। आज के दिन सही प्रोसेस से नाग को पूजते और दूध पिलाते हैं सर !यदि वह दूध को एक्सेप्ट कर लेता है तब पूरा साल उसके द्वारा डसने का डेंजर ख़तम हो जाता

है। "

उसके बाद वह बड़ी सादगी से हाथ जोड़कर खड़ी हो गई और बोली- यू एक्सेप्टेड द मिल्क सर !थैंक यू।  नेक्स्ट ईयर आपकी भरपेट सेवा करेगा हम। ”

बेटे के होठों पर मंद हँसी थिरकने लगी। 

तब तक न मैं इस विधा के बारे मैं कुछ जानती थी और न ही कभी लिखी थी पर मैंने अनुभव किया कि साहित्य की  विधा  लघुकथा जो मेरे लिए नई -नवेली थी सामाजिक उपयोगिता की दृष्टि से खरी उतरी। व्यस्त होते हुए भी लोग उसे सुनने को तैयार और उसके शब्दों की गूँज बहुत समय तक हवा में तैरती रहती हैं।  

लाइब्रेरी में एक संग्रह में कमलेश भारतीय की भी लघुकथाएं पढ़ीं। जब जब किसी के लिए चाय बनाती हूँ कमलेश भारतीय की ‘सर्वोत्तम चाय ;लघुकथा का एक एक शब्दरूपी पत्ता फड़फड़ाने लगता है -'चाय केवल चाय नहीं होती,इसके अलावा भी बहुत कुछ है।' इसमें निहित भावना सदैव के लिए मेरी जीवन संगिनी बन गई।  

भारत जाकर सबसे पहला काम किया -पुरानी डायरी निकालकर उस पर लिख दिया -'जीवन की छोटी -छोटी घटनाएँ ही लघुकथा का रूप धारण कर लेती हैं I' डायरी खोली --देखा ----२-३ लघुकथाएँ तो पूरी की पूरी तैर रही हैं I मुझमें विश्वास पैदा हुआ -मैं लघुकथा लिख सकती हूँ। लन्दन जाना क्या हुआ चंद घंटों में मेरी लेखनयात्रा में एक नया अध्याय ही जुड़ गया जो वर्षों भारत में रहकर न हो सका।जब कभी फुरसत के पलों में अतीत के इन पन्नों को खंगालती हूँ तो स्वयं अभिभूत हो उठती हूँ।

5/7/2020

सुधा भार्गव 

जे ब्लॉक ,703 स्प्रिंगफील्ड एपार्टमेंट 

सरजापुरा रोड 

बैंगलोर -560102 

मो.9731552847 

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