वेदना-संवेदना के बीहड़ जंगलों को पार करती हुई बड़ी खामोशी से तूलिका सृजन पथ पर अग्रसर हो अपनी छाप छोड़ती चली जाती है जो मूक होते हुए भी बहुत कुछ कहती है । उसकी यह झंकार कभी शब्दों में ढलती है तो कभी लघुकथा का रूप लेती है । लघुकथा पलभर को ऐसा झकझोर कर रख देती है कि शुरू हो जाता है मानस मंथन।

सोमवार, 14 अप्रैल 2014

गणेश पुराण/सुधा भार्गव 








-बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स की आज मीटिंग है। उनका अगले वर्ष के लिए चुनाव होगा । तुम्हें  भी मीटिंग में चलना है ।
-मैं क्या करूंगी ?
-तुम्हारा वोट बहुत कीमती है। इमरजेंसी में इसका प्रयोग होगा । मेरे विपक्षी को हराने के  काम आएगा।
-आपका विपक्षी कौन है?
-वही मेरा सौतेला जानी दुश्मन ।
-गोद देने से क्या सौतेला हो गया । कुछ करने से पहले अच्छी तरह सोच लो वरना जानलेवा जख्म जीना मुश्किल कर देंगे । फिर मुझे भाई –भाई के झगड़े में क्यों खचेड़ते हो । मेरे चचेरी बहन उनको ब्याही है । हमने हमेशा अपने को सगी बहने समझा । मेरा यह रिश्ता सदैव को चटक जाएगा । फिर क्या जुड़न हो पाएगी । मैं कैसे आई दरार को पाट पाऊँगी । दुनिया क्या कहेगी ?

-तुमने मेरी बात नहीं मानी तो मैं नाराज हो जाऊँगा। मगर तुम ऐसा करोगी नहीं। तुम मेरी अर्धांगिनी हो ,गृह लक्ष्मी हो । यदि मैं जीत गया तो फैक्ट्री का मालिक बन जाऊंगा । दुश्मन के बदले जिसे डायरेक्टर बनाऊँगा ,वह तो मेरी उँगलियों पर नाचेगा। 
-वह गुलाम कौन है ?
-तुम्हारा भाई ! दो साल की ही तो बात है तुम्हारा बेटा पढ़कर आ जाएगा । फिर उसे तुम्हारे भाईजान के बदले डायरेक्टर बना दूंगा। पूरी फैक्टरी पर मालिकाना मेरा हक होगा। बाहरवालों को एक –एक करके आउट कर दूंगा। उनके शेयर्स ज्यादा दाम देकर खरीद लूँगा ।
-आपका इन बातों में बड़ा दिमाग चलता है ।

-सच्चे व्यापारी को दूरदर्शी ,समझदार होना चाहिए गणेश की तरह ।
-वह कैसे ?
-हाथी की सूंढ की तरह सूंघकर व्यापारी को दूर से ही भाँप लेना चाहिए ,खतरा तो आसपास नहीं मँडरा रहा है। हाथी की निगाहों की तरह नजर में पैनापन हो । इससे सूक्ष्म से सूक्ष्म कोना भी छिपा न रहेगा । उस की ही तरह कान बड़े -खड़े और पेट मोटा होना चाहिए ताकि खुद तो जरा सी खुसर –पुसर भी सुन ले लेकिन अपने भेद पेट में इस प्रकार छिपाए रखे कि दूसरों को उसकी थाह भी न मिले । और बताऊँ ---दिमाग इतना तेज हो कि दूसरों के मन की  बात उगलवा ले । चालें ऐसी आड़ी-तिरछी चले कि बहुत से विभीषण,जयचंद उससे आकर मिल जाएँ । भाई, मैं तो इन्हीं राहों का मुसाफिर हूँ?
-बंद कीजिए अपना गणेश पुराण ।

-हाँ ,वोट देने के साथ –साथ मेरे वैरी के खिलाफ बोलोगी भी । उसे अपमानित करके अपने मन की भड़ास निकाल लूँगा ।
-यह मुझसे नहीं होगा ।
-बस एक बार मेरी बात मान लो फिर जीवनभर तुम्हारे चरणों में पड़ा रहूँगा । विष्णु भगवान के लक्ष्मी पैर दबाती है पर मैं आजीवन तुम्हारे दबाऊंगा और लक्ष्मी पुराण पढ़ता रहूँगा ।  

प्रकाशित -संरचना लघुकथा विशेषांक 2010


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