वेदना-संवेदना के बीहड़ जंगलों को पार करती हुई बड़ी खामोशी से तूलिका सृजन पथ पर अग्रसर हो अपनी छाप छोड़ती चली जाती है जो मूक होते हुए भी बहुत कुछ कहती है । उसकी यह झंकार कभी शब्दों में ढलती है तो कभी लघुकथा का रूप लेती है । लघुकथा पलभर को ऐसा झकझोर कर रख देती है कि शुरू हो जाता है मानस मंथन।

रविवार, 12 जून 2011

लघुकथा



मन पंछी
/सुधा भार्गव








--हलो --शबनम  ! कैसी हो ?तुम्हें तो बात करने की फुरसत नहीं ।
-ठीक हूं----। क्या बताऊँ  शशी , बहू  काम से बाहर गई है ।मैं प्यारी सी पोती के पास बैठी हूं ।
-अकेली -----आज कहीं बाहर घूमने नहीं गई।
-कहाँ जाऊँ ,कहीं चैन नहीं ! इसको खिलाने में ,बातें करने में बड़ा आनंद आता है  ।


--कैसा आनंद !यूं कहो एक मुफ्त की आया मिल गई है ।बहू तुम्हारा शोषण कर रही है शोषण --।
-ऐसी बात नहीं-- - - -घर में ही आनंद और तृप्ति हो तो बाहर ढूढ़ने की क्या जरूरत !


- पोती का मोह छोड़कर इंडिया  आ सकोगी - - -कब आ रही हो ?
-चाहे जब चल दूँगी !
-कैसे  आओगी ?तीन माह का टिकट जो लेकर गई हो- ---!

- उससे क्या होता है  । जब तक इज्जत की सीढ़ियाँ चढ़ती रहूंगी  तब तक यहाँ हूं ।जरा भी फिसलन लगी    ---- ,चल दूँगी ।बिना टिकट के - - -|

मन से,विश्वास ,आसक्ति समाप्त हो जाय तो उसके उड़ने में देर नहीं लगती |  मन की उड़ान के लिए टिकट की जरूरत नहीं ,शरीर यहाँ हुआ तो क्या हुआ।

* * * * *

12 टिप्‍पणियां:

  1. मन से,विश्वास ,आसक्ति समाप्त हो जाय तो उसके उड़ने में देर नहीं लगती | मन की उड़ान के लिए टिकट की जरूरत नहीं ..

    अच्छी लगी यह लघुकथा ... मन की ही सुननी चाहिए ...

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  2. मन से,विश्वास ,आसक्ति समाप्त हो जाय तो उसके उड़ने में देर नहीं लगती | मन की उड़ान के लिए टिकट की जरूरत नहीं ,शरीर यहाँ हुआ तो क्या हुआ।
    ... ek chhoti si kahani ke madhyam se kitni badee baat kah gai aap...

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  3. सचमुच मन का पंछी ही सबसे अधिक प्रबल होता है । उसकी उडान को महत्त्व देना बडी बात है । अच्छी रचना है ।

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  4. अच्छी लगी यह लघुकथा| धन्यवाद|

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  5. इस मन की उड़ान का क्‍या करें। कहां कहां ले जाती है।

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  6. मन के पंछी की उड़ान को कौन रोक सकता है ...
    सार्थक लघु कथा !
    आभार !

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  7. आदरणीया सुधा भार्गव जी
    सादर प्रणाम !

    मन पंछी अच्छी लघु कथा है… बहुत भावपूर्ण !
    मन से,विश्वास ,आसक्ति समाप्त हो जाय तो उसके उड़ने में देर नहीं लगती | मन की उड़ान के लिए टिकट की जरूरत नहीं ,शरीर यहाँ हुआ तो क्या हुआ।


    पिछली लघुकथा बैकुंठ धाम भी पसंद आई ।
    आपकी लघुकथाएं हमें बिल्कुल अपने आस पास की ही , अपनी-सी लगती हैं । इनमें बोझिलता न होने के कारण पढ़ने में रुचि बनी रहती है ।

    आपको कोटिशः बधाई !

    हार्दिक शुभकामनाओं सहित

    - राजेन्द्र स्वर्णकार

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  8. मन पंछी बहुत सुन्दर लघु कथा...

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  9. सुन्दर प्रस्तुति .हाँ मन से आदमी जा चुका होता है .बाद में स -शरीर जाना तो बस एक रिहर्सल ही होता है .

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