वेदना-संवेदना के बीहड़ जंगलों को पार करती हुई बड़ी खामोशी से तूलिका सृजन पथ पर अग्रसर हो अपनी छाप छोड़ती चली जाती है जो मूक होते हुए भी बहुत कुछ कहती है । उसकी यह झंकार कभी शब्दों में ढलती है तो कभी लघुकथा का रूप लेती है । लघुकथा पलभर को ऐसा झकझोर कर रख देती है कि शुरू हो जाता है मानस मंथन।

शुक्रवार, 22 फ़रवरी 2013

लघुकथा



बंदर का तमाशासुधा भार्गव 





सड़क पर एक  औरत बंदर का तमाशा दिखा रही थी । मैले कुचैले ,फटे फटाए कपड़ों से किसी तरह तन को ढके हुये थी ।  बंदर की कमर में रस्सी बंधी थी जिसका एक छोर उस औरत ने पकड़ रखा था । झटके दे –देकर कह रही थी –कुकड़े ,माई –बाप और अपने भाई –बहनों को सलाम कर और कड़क तमाशा दिखा तभी तो तेरा –मेरा पेट भरेगा । 

बंदर भी औरत के कहे अनुसार मूक अभिनय कर पूरी तरह झुककर सलाम ठोकने की कोशिश कर रहा था ।

-अच्छा –अब ठुमक –ठुमक कर नाच दिखा --।मैं गाती हूँ। 
औरत ने गाना शुरू किया –

अरे छोड़  छाड़  के अपने
सलीम की गली --
अनारकली डिस्को चली ।

बंदर ने बेतहाशा हाथ पैर फेंकने कमर –कूल्हे मटकाने शुरू किए,उसे डिस्को जो करना था । थक कर जमीन पर बैठ गया तो तालियों ने उसका स्वागत किया ।
तमाशा देखने वालों की भीड़ उमड़ पड़ी थी । लोग हंस हंस कर कह रहे थे –पैसा फेंको –तमाशा देखो ।
और वह बंदर -- बंदर नहीं था बल्कि बंदर का तमाशा दिखाने वाली उस गरीब औरत का दो वर्षीय नंग –धड़ंगा बेटा था । 

* * * * * *

11 टिप्‍पणियां:

  1. श्रीमती वन्दना गुप्ता जी आज कुछ व्यस्त है। इसलिए आज मेरी पसंद के लिंकों में आपका लिंक भी चर्चा मंच पर सम्मिलित किया जा रहा है।
    आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार (23-02-2013) के चर्चा मंच-1164 (आम आदमी कि व्यथा) पर भी होगी!
    सूचनार्थ!

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  2. dil ko chhu lene waali behtareen laghu katha padvaee hai aapne.yeh ek sachchaee bhee hai hamare aas-paas ghatti hue,sundar.

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  3. हाँ सुधा जी, ये त्रासदी है हमारे समाज कॆ. , वहां तो नहीं जानती लेकिन यहाँ पर ट्रेन में , प्लेटफोर्म पर ऐसे बच्चों को नाचते हुए घर वाले मिल जाते है।

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  4. आप सबके मूल्यवान विचारों के लिए आभारी हूँ ।

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