वेदना-संवेदना के बीहड़ जंगलों को पार करती हुई बड़ी खामोशी से तूलिका सृजन पथ पर अग्रसर हो अपनी छाप छोड़ती चली जाती है जो मूक होते हुए भी बहुत कुछ कहती है । उसकी यह झंकार कभी शब्दों में ढलती है तो कभी लघुकथा का रूप लेती है । लघुकथा पलभर को ऐसा झकझोर कर रख देती है कि शुरू हो जाता है मानस मंथन।

मंगलवार, 2 अप्रैल 2013

सृजयमान ( सृजनात्मक साहित्य वार्षिकी पत्रिका २०१२ लुधियाना ) में प्रकाशित

मेरी दो लघुकथाएं

1--बंद ताले /सुधा भार्गव 


छोटे भाई की शादी थी । दिसंबर की कड़ाके की ठण्ड ,हाथ पैर ठिठुरे जाते थे पर बराती बनने की उमंग में करीब १२० बराती लड़कीवालों के दरवाजे पर एक दिन पहले ही जा पहुंचे । 

पिताजी सुबह की गुनगुनी धूप का आनंद लेने के लिए  जनमासे में  चहल कदमी करने लगे । कुछ दूरी पर उन्होंने देखा ५ --६ युवकों की एक टोली बड़े जोश में बातें कर रही है । 
-क्या बात है,तुम लोग नहाये नहीं !। पिताजी ने पूछा
-
कैसे नहायें अंकल ,बाथरूम में बाल्टी ही नहीं हैं ।
-
अभी बाल्टियाँ मंगवाए देता हूं और क्या चाहिए वह भी देख लो ।
-
मेरे बाथरूम में तौलिया भी नहीं है दूसरा युवक बोला ।
-
ठीक है चुटकी बजाते ही सब हाजिर हो जायेगा । 

पिताजी तो चले गये पर लड़कों का लाउडस्पीकर चालू था ।
-
जब इंतजाम नहीं कर सकते तो ये लड़कीवाले बारातियों को बुला  क्यों लेते  हैं ।
-
अरे दोस्त लगता है  ये सस्ते में टालने वाले हैं । हम ऐसे सस्ते में टलने वाले नहीं ।
उनकी बातें विराम पर आना ही नहीं चाहती थीं लेकिन सामने से एक सेवक को  बाल्टियों और तौलियों से लदा -फदा देख उनके मध्य मौन पसर गया -
                                                                           
एक बुजुर्ग महाशय को जब यह पता चला कि बारातियों की  मांगे खुद पिताजी पूरा कर रहे हैं तो उनसे यह भलमानसता  सही न गई ।
बोले- --त्रिवेदीजी  लड़के के पिता होकर समधी  के सामने इतना  झुकना ठीक नहीं । आखिर हम सब हैं तो बराती बराती तो बराती ही होते हैं ।

-लड़के -लडकी का रिश्ता हो जाने के बाद दो परिवार एक हो जाते हैं।  मेरी तो यही कोशिश रहेगी कि दोनों 
के सुख -दुःख ,मान -अपमान  की कड़ियाँ इस  प्रकार बिंधी रहें कि भोगे एक तो अनुभूति हो दूसरे को।  पिताजी  शांत स्वर में बोले । 
सुनने वालों के दिमाग के ताले खुल चुके थे ।
 


2---तुम महान थे /सुधा भार्गव 





अनाथालय के अध्यक्ष महोदय ने भाषण दिया --
-पछले वर्ष 50 अनाथ बच्चों को सनाथ बनाया गया  ।गोद  लेने से पहले उनके होने वाले माता -पिता  की अच्छी तरह से जाँच -पड़ताल की गई ।जब पूरी तरह तसल्ली हो गई कि असीमित प्यार लुटाते हुए वे असीम गहराई के साथ उनका भविष्य निर्माण करेंगे तभी  गोद देने की कार्यवाही पूरी हुई ।सभागार तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा ।

भाषण फिर चालू हुआ -पांच वर्ष पूर्व दिए  बच्चों के अभिभावकों को हमने इस समारोह में विशेष रूप से आमंत्रित किया है ताकि बच्चों से सम्बंधित उपलब्धियों को जान कर गर्व का अनुभव किया जा सके ।
भाषण समाप्ति के बाद एक विशिष्ट देश का नागरिक खड़ा हुआ ।
-मैं गोद लिए बच्चे  के बारे में कुछ कहना चाहता हूँ ।
सब की नजरें उस पर केन्द्रित हो गईं ।
विलियम मेरा दत्तक पुत्र ---तुम महान थे |मेरा पुत्र 11वर्ष का हो गया था ।  
 उसने न जाने  कितनों का जीवन सँवार दिया ।अपनी एक जिन्दगी के बदले 10 को नई जिंदगियाँ दे गया ।लेकिन मुँह से उफ तक न की ।
सुनने वाले  सकपका  गए ।
--आप कहना क्या चाहते हैं ।अध्यक्ष के धैर्य की दीवार ढह गयी ।

विदेशी ने फिर कहना शुरू किया --पिछले माह बम विस्फोट के कारण  स्कूल बच्चों की लाशों से पट गया ।अस्पताल  बच्चों की दर्दनाक चीखों से हिल गया ।विलियम ने जीतेजी अपनी दोनों खूबसूरत आँखें और गुर्दे दूसरों के लिए दान कर दिए ।अफसोस ! उसके दिल का उपयोग न हो सका ।कमजोरी के कारण अचानक उसके ह्रदय की गति रुक गई ।लेकिन उसका बहुत बड़ा दिल था।मेरे प्यारे विलियम --तुम महान  थे । 
सुनने वाले समझ  नहीं पा रहे थे कि वे हँसें या  रोयें , दाद दें अध्यक्ष महोदय की या उस विदूषक की जो अपने को विलियम का पिता कहता था ।
* * * * *

शुक्रवार, 22 मार्च 2013

हिन्दी चेतना में प्रकाशित


पुरस्कार /सुधा भार्गव 

 यह उन दिनों की बात है जब मैं कलकत्ते में जय इंजीनियरिंग वर्क्स के अंतर्गत उषा फैक्ट्री में इंजीनियर था । जितना ऊँचा ओहदा उतनी  भारी भरकम जिम्मेदारियां !खैर --मैं चुस्ती से अपने कर्तव्य पथ पर अडिग था । 

अचानक उषा फैक्ट्री में लौक आउट हो गया । छह माह बंद रही । हम सीनियर्स को वेतन  तो मिलता रहा पर रोज जाना पड़ता था । आये दिन मजदूर अफसरों का घिराव कर लेते थे क्योंकि लौक आउट होने का कारण ,वे उन्हें  ही समझते थे । 

;माह के बाद नींद हराम हो गई।  तरह -तरह की अफवाहें जड़ ज़माने लगीं --बंद हो जायेगा वेतन मिलना ,छंटनी होगी कर्मचारियों की ,इस्तीफा देने को मजबूर किया जायेगा --फैकट्री बंद हो जायेगी । 
दिन -रात मैं सोचता -भगवान् नौकरी छूट गई तो क्या होगा --|तीन बच्चों सहित कहीं एक दिन भी गुजारा नहीं । 

एक अन्तरंग मित्र जो देहली   में रहते थे सलाह दी -एक माह की छुट्टी लेकर तुम यहाँ आ जाओ । मशीने मैं  खरीदूंगा तुम कार के पार्ट्स बनाना । 
वहाँ जाकर मैंने कार के पार्ट्स की ड्राइंग की फिर उसके अनुसार  पार्ट्स बनवाये । मैंने अपनी सफलता की सूचना मित्र को  बड़े उत्साह से दी । 

वे बोले- ---पार्ट्स तो बनवा लिए पर इनके  विज्ञापन का कार्य भी आपको करना पड़ेगा । प्रारंभ  में तो दरवाजे -दरवाजे आपको ही जाना पड़ेगा । इनके इस्तेमाल करने से होने वाले फायदे आपसे ज्यादा अच्छी तरह दुकानदारों को कौन समझा सकेगा । उनकी मांग  पर निर्भर करेगा कितना माल बने । व्यापार में शुरू -शुरू में अकेले ही करना पड़ते है । मेरा  मतलब माल बनाना ,बेचना ,पैसा उगाहना । 

व्यापार के मामले में  मैं नौ सीखिया--बाप दादों में कोई व्यापारी नहीं --इतनी भागदौड़ वह भी अकेले।  फैक्ट्री में तो अलग -अलग विभाग के अलग दक्ष अफसर व कर्मचारी । यहाँ मैं समस्त विभागों की खूबियां  अपने में कैसे पैदा करूँ !
इस डावांडोल परिस्थिति में मैंने निश्चय किया -पार्ट्स लुधियाना में छोटे छोटे कारखानों से बनवाकर उन्हें बेचूँगा । लुधियाने मैं मेरी जान पहचान भी थी । 

कार का एक विशेष पार्ट ५रुपये का बना । मैंने उसकी कीमत १०रुपये रखी । इस बारे में दोस्त की सलाह लेनी भी आवश्यक समझी । 
 बोले- -१०रुपये तो बहुत कम है ,१५ रखिये । 
-इतनी ज्यादा ! पार्ट बिकेगा नहीं । 
-सब बिकेगा |जो ज्यादा से ज्यादा झूठ बोलने वाला होता है वही बड़ा व्यापारी बनता है । यहाँ ईमानदारी से काम नहीं चलता । 

कई  दिन गुजर गये पर उनकी बात पचा न पाया। मेरी स्थिति बड़ी अजीब थी !पैसा मेरा दोस्त लगा रहा था  इस कारण उसकी बात माननी जरूरी थी मगर मानूँ कैसे !मेरी आत्मा कुलबुलाने लगती ,बार -बार धिक्कारने आ जाती । आखिर   हिम्मत करके एक सुबह बोल ही  दिया -
-यार ,मुझसे यहाँ काम धंधा  नहीं होगा । कलकत्ते ही वापस जा रहा हूँ । 
-जानता था --जानता था ,तुमसे कोई काम नहीं होगा |ये इंजीनियर सब बेकार होते हैं |
उस पल मैं हजार बार मरा होऊंगा ----। 

कलकत्ते पहुँचते ही फैक्टरी गया । मेरी मेज पर एक लिफाफा रखा हुआ था । काँपते हाथों से उसे खोला । लग रहा था सैकड़ों  बिच्छू  एक साथ उँगलियों में डंक मार रहे हों । 
मेरे नाम पत्र था -- 
आपकी ईमानदारी व मेहनत से प्रशासक वर्ग बहुत प्रभावित है । अत :खुश होकर आपको हैदराबाद भेज रहे हैं ताकि फैन  फैक्टरी में भी विकास विभाग संभालकर नये -नये डिजायन के पंखों का निर्माण करें । 
 हमारी शुभ कामनाएं आपके साथ हैं । 


गूगल से साभार 


 प्रकाशित -हिन्दी प्रचारिणी सभा (कैनेडा )की अंतर्राष्ट्रीय त्रैमासिक पत्रिका  हिन्दी चेतना लघुकथा विशेषांक  अक्तूबर 2012 में. 

हिन्दी चेतना की लिंक है  - http://hindi-chetna.blogspot.in/

रविवार, 17 मार्च 2013

मेरी लघुकथा



हस्ताक्षर /सुधा भार्गव

संसद में यह अधिनियम पास हो चुका था कि बाप –दादा की संपत्ति में बेटियों का भी हक है । यदि वे चाहें तो अपने कानूनी हक की लड़ाई लड़ सकती हैं । भाई बेचारों के बुरे दिन आ गए । यह हिस्सा बांटा नियम कहाँ से आन टपका ! कुछ सहम गए ,कुछ रहम खा गए ,कुछ घपलेबाजी कर गए ,कुछ चाल चल गए । माँ –बाप मुसीबत में फंस गए । बेटी को दें तो ---बेटे से दुश्मनी ,न दें तो उसके प्रति अन्याय ! जिनके माँ –बाप ऊपर चले गए ,उनके लड़कों ने संपत्ति  की कमान सँभाली । निशाना ऐसा लगाया कि माल अपना ही अपना ।

सोबती की शादी को दस वर्ष हो गए थे । वह हर समय अपने भाइयों के नाम की माला जपती रहती –मेरे भाई महान हैं । उनके खिलाफ कुछ नहीं सुन सकती । लाखों में एक हैं वे । राखी के अवसर पर  दोनों भाइयों की कलाई पर सोबती  स्नेह के धागे बांधती । वे भी भागे चले आते । उत्सव की परिणति महोत्सव  में हो जाती ।

इस साल भी तीनों भाई –बहन एकत्र हुये । छोटा भाई कुछ विचलित सा था । ठीक राखी बांधने से पूर्व उसने एक प्रपत्र बहन के सामने बढ़ा दिया –दीदी ,इसपर हस्ताक्षर कर दो ।
हस्ताक्षर करने से पूर्व उसने पढ़ना उचित समझा । लिखा था –मैं इच्छा से पिता की संपत्ति में से अपना हक छोड़ रही हूँ ।

सोबती एक हाथ में प्रपत्र अवश्य पकड़े हुये थी परंतु हृदय में उठती अनुराग की अनगिनत फुआरों में भीगी सोच रही थी -----
–बचपन से ही मैं अपने हिस्से की मिठाई इन भाइयों के लिए रख देती थी और ये शैतान अपनी मिठाई भी खा जाते और मेरी  भी । उनको खुश होता देख मेरा खून तो दुगुना हो जाता था । आज ये बड़े हो गए तो क्या हुआ ,रहेंगे तो मुझसे छोटे ही !यदि ये मेरा संपत्ति का अधिकार लेना चाहते हैं ,तो इनकी मुस्कुराहटों की खातिर प्रपत्र पर हस्ताक्षर कर दूँगी । मुझे तो इनको खुश देखने की आदत है ---।

सोबती ने बारी –बारी से दोनों भाइयों की ओर देखा और मुस्कराकर प्रपत्र पर हस्ताक्षर कर दिये ।

प्रकाशित -संकलन  लघुकथाएं जीवन मूल्यों की (फरवरी 2013 में प्रकाशित)
सम्पादन -सुकेश साहनी ,रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

                                                                             

शुक्रवार, 22 फ़रवरी 2013

लघुकथा



बंदर का तमाशासुधा भार्गव 





सड़क पर एक  औरत बंदर का तमाशा दिखा रही थी । मैले कुचैले ,फटे फटाए कपड़ों से किसी तरह तन को ढके हुये थी ।  बंदर की कमर में रस्सी बंधी थी जिसका एक छोर उस औरत ने पकड़ रखा था । झटके दे –देकर कह रही थी –कुकड़े ,माई –बाप और अपने भाई –बहनों को सलाम कर और कड़क तमाशा दिखा तभी तो तेरा –मेरा पेट भरेगा । 

बंदर भी औरत के कहे अनुसार मूक अभिनय कर पूरी तरह झुककर सलाम ठोकने की कोशिश कर रहा था ।

-अच्छा –अब ठुमक –ठुमक कर नाच दिखा --।मैं गाती हूँ। 
औरत ने गाना शुरू किया –

अरे छोड़  छाड़  के अपने
सलीम की गली --
अनारकली डिस्को चली ।

बंदर ने बेतहाशा हाथ पैर फेंकने कमर –कूल्हे मटकाने शुरू किए,उसे डिस्को जो करना था । थक कर जमीन पर बैठ गया तो तालियों ने उसका स्वागत किया ।
तमाशा देखने वालों की भीड़ उमड़ पड़ी थी । लोग हंस हंस कर कह रहे थे –पैसा फेंको –तमाशा देखो ।
और वह बंदर -- बंदर नहीं था बल्कि बंदर का तमाशा दिखाने वाली उस गरीब औरत का दो वर्षीय नंग –धड़ंगा बेटा था । 

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शनिवार, 17 नवंबर 2012

मेरी दो अन्य लघुकथाएं



|1| दुल्हन /सुधा भार्गव








वह नई नवेली  दुल्हन शर्मायी सी सुबह से कूड़े के ढेर पर बैठी थी ।उसके चारों ओर कौवे मंडरा रहे थे ।वह कौवे उड़ाती जाती और बड़बडाती   --- -अरे नाशपीटों ,कुछ तो छोड़ दो ।दो दिन से भूखी हूँ ।  थोड़ी देर में मेरा पति भी  रोटियाँ लेकर आ जाएगा  ।कुछ मैं जुगाड़ कर लूंगी कुछ वह कर रहा है ।

बीच -बीच में फटी साड़ी  से अपने शरीर को ढांपने की कोशिश  करती कि कहीं ये उड़ें तो दूसरे कौवे  न आन बैठें ।इन्तजार करते -करते संध्या ढलने को हुई पर न उसका स्वामी आया और न ही उसे रोटियाँ मिलीं ।उस बेचारी को क्या मालूम था कि  दोनों ही बंद हैं -एक बोतल में तो दूसरी  साहूकार की बोरी  में ।



|2| आलतू -फालतू 


विवाह का निमंत्रण कार्ड 


-अरे पुत्तर , तेरी बहन की शादी के दिन करीब हैं ।लिस्ट बना ली क्या ?किस किस को शादी के निमंत्रण  कार्ड भेजे जायेंगे ।
--हाँ पप्पाजी ,बस एक सरसरी निगाह डाल लो ।
-ये क्या---- !ऐसे बनती है लिस्ट ?
--तो ----।
--लिस्ट में पहले नंबर पर वे आते हैं जिन्हें हमने समय -समय पर उपहार दिए हैं ।नंबर दो में वे शामिल रहते हैं जिनसे मेरा मतलब पड़ता है या  पड़ने वाला है ।
-ठीक है जी ।

-कुछ लोग खाने के बड़े शौकीन होते हैं ,उन्हें जरूर बुलाना है ।खायेंगे -पीयेंगे  ,हमारे गुणगान करेंगे ।भेंट -शेंट भी अपने हिसाब से कुछ तो देंगे ही ।
--पप्पा जी ---ये लिस्ट तो हनुमान जी की पूंछ होती जा रही है ।इसे सभाँलेगा कौन ?
--घबरा क्यों रहा है ---।आज भी कुछ की सोच है -बहन -बेटी की शादी में काम करने जाना चाहिए न कि  खाने को ।ऐसे लोगों को तो जरूर  ही बुलाना है ।
--लेकिन कार्ड तो तब भी बच  जायेंगे |
--बच  जाने दे ----ये फुटकारियों  के काम आयेंगे ।
--फुट करिया ----इनका नाम तो मैं पहली बार सुन रहा हूँ ।
--हाँ --हाँ फुट करिया !ये वे लोग हैं जो आना तो चाहते हैं पर हम नहीं बुलाना चाहते ।
-तो इन्हें भी भेज  दूँ कार्ड ।
-मूर्ख कहीं का !शादी से पहले कार्ड मिल गए तो आन टपकेंगे । अभी तो मैं बहुत व्यस्त हूँ फालतू समय में भेज देंगे इनको  ।चिंता न कर --पुत्तर|



(कर्म निष्ठा मासिक पत्रिका  में प्रकाशित )

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गुरुवार, 15 नवंबर 2012

लघुकथा



महोत्सव /सुधा भार्गव 






बंतो का दैनिक नियम था कि  शाम होते ही अपनी पड़ोसिन सत्या  से मिलने निकल पड़ती  । आदत के मुताबिक़ वह उस दिन भी उसके घर जा पहुंची ।जिसे रसोई में घुसने से भी चिढ थी   उसे वहां आराम से काम करते देख  बंतो  पलक झपकाने लगी दिवाली के पकवान  बनने  की सी महक  हवा में तिर रही थी जिसमें बंतो डूब सी गई ।

-आज तो तेरी रसोई से घी की बड़ी खुशबू आ रही है ।क्या आज से ही दिवाली मनानी  शुरू कर दी  ।
-ऐसा ही समझ ले बंतो ।
-लो कर लो बात !कैसे समझ  लूँ ।दिवाली  का तो अभी हफ्ता भर है ।कोई सुनेगा या देखेगा तो यही समझेगा -तू पागल हो गई है ।
-समझने दे ।मैं चिंता नहीं करती ।दो माह बाद भोपाल से  मेरा बेटा दो दिन को आया है । उसका आना मेरे लिए महोत्सव  से कम नहीं ।समझ नहीं आता उसके लिए क्या -क्या बनाऊँ ।कभी सोचती हूँ यह बनाऊँ ,कभी वह बनाऊँ ।
-तू  तो ऐसे कह रही है जैसे उसकी बीबी खाने को न देती हो ।

कमरे में बैठे सत्या  के बेटे ने अपनी   माँ और पड़ोसिन काकी की बातें  सुन ली थी ।चूंकि बर्तालाप का विषय वह  स्वयं   था इसलिए चुप न रहा सका । काकी के मान का ध्यान रखते हुए कमरे से बाहर आकर  बड़ी सरसता से  बोला ---
--काकी,मेरी बीबी ने तो खिला -खिलाकर मुझे  सेठ बना दिया है पर जीवन  में सबका स्थान अलग -अलग होता  है ।कोई  किसी की जगह नहीं ले सकता, फिर हाथों का स्वाद भी तो अलग होता है ।
-माफ करना बचुआ ।हम तुम्हारी बात से राजी नहीं ।नून तेल घी एकसा ,मसाले एक से ।फिर स्वाद अलग अलग कैसे ?
-काकी ,स्वाद अलग -अलग ही  होता है ।किसी के बने खाने में प्यार का स्वाद होता है तो किसी में ममता का  ।किसी में कर्तव्य का स्वाद होता है तो किसी में  बेगार टालने का ।
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मंगलवार, 16 अक्टूबर 2012

लघुकथा


गुफा / सुधा भार्गव  



विदेशी धरती पर एक खुशनुमा  सुबह !महकती गुलाब की क्यारियों के पास खड़ी  वह   गहरी साँस ले रही थी |चाय की चुस्कियाँ  लेते हुए पीछे से बेटे की आवाज आई --
-माँ ,मैंने चोकलेट और औरेंज टोफियाँ भिजवाई थीं ---मिल गईं |
 -हाँ !
--कल सोयाबीन ,गेहूँ और बार्ली से बनी मिठाई लाया था |
-हाँ --हाँ --वह भी मेरे पास है ।
-उन्हें रखकर भूल मत जाना ,दो दिन में खाकर ख़त्म करना हैं ।चक्की से कह  दिया है आपके मोबाईल से  इंडिया का सिम कार्ड निकालकर यहाँ का डाल दे ताकि फोन करने में कम पैसा लगे ,बस एक छोटा सा हल्का सा छाता और खरीदना है |भरोसा नहीं कब इंद्र देवता मेहरबान हो जायें |अच्छा , धूप का चश्मा और कैमरा तो  इंडिया से   लाई होंगी --कहीं भी जाओ इन सब चीजों को एक बैग में रखकर ले जाना --और हां मेरा परिचय कार्ड भी उसमें डाल लेना |एक साँस  में सब बोल गया ।

वह मुग्ध भाव से सुनतीरही | मेरा इतना ध्यान -------!
बेटा दो कदम गया ही था कि फिर लौटा -जेब से १००पाउंड्स  निकालकर माँ के हाथ में थमाए -ये भी रख लो |
--न -- न मेरे पास हैं |
-ओह ले भी लो माँ काम आएंगे |पुत्र की कमाई पर माँ का भी हक़  है |
पुत्र के अंतिम वाक्य ने उसका मुँह सी दिया |

बेटा  तो जल्दी ही ऑफिस चला गया पर वह  -- 
वह शर्म की अँधेरी गुफा  में धंसती चली गई ।.ख्यालों के बादल एक -दूसरे से टकराने लगे -----------------
उस दिन   थका -मांदा बेटा शाम को  ऑफिस से घर लौटा  था ,| छोटी बेटी जल्दी से आई और  अपने   पापा के  हाथ में कप थमाते बोली --चाय गरम ---गर्मागर्म  चाय | चाय  पीकर उसकी   थकान कपूर की तरह उड़ने लगी |थोड़ी देर में बड़ी बेटी आई --मेरे प्यारे पापू  --जरा आराम से  सोफे पर लेट जाओ  |मैं सिर की चम्पी तेल मालिश कर देती हूँ ,उसके बाद नहाना |

बेटियों की दूध सी स्नेह धारा देख उसके  मुँह से निकल पड़ा ---बेटियाँ कितना ध्यान रखती हैं !बेटे अपनी ही धुन में----वाक्य पूरा करने से पहले ही उसने  अपनी जीभ काट ली पर तीर कमान से निकल चुका था | बेटा मौन था  पर उस चुप्पी में भी हजार प्रश्न  झिलमिला रहे थे ।वह उनमें बिंध  सी गई ।

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गुरुवार, 4 अक्टूबर 2012

लघुकथा











मौलिकता /सुधा भार्गव

-अगले महीने मेरी चार पुस्तकें प्रेस से निकलने वाली हैं I
२६जनवरी को लोकार्पण है आना I
-जरूर आऊँगा
-तुम आजकल क्या कर रहे हो ?
-लिख रहा हूँ I
-फिर छपवाते क्यों नहीं !
-साधन नहीं I
-तो लिखने से क्या फायदा !
-लिखना मेरी मजबूरी हैI
-लाओ ,मैं छपवा दूँ
-इसके बदले मुझे क्या करना होगा ?
-अपनी कुछ अप्रकाशित -मौलिक रचनाएँ मेरे --नाम |

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