वेदना-संवेदना के बीहड़ जंगलों को पार करती हुई बड़ी खामोशी से तूलिका सृजन पथ पर अग्रसर हो अपनी छाप छोड़ती चली जाती है जो मूक होते हुए भी बहुत कुछ कहती है । उसकी यह झंकार कभी शब्दों में ढलती है तो कभी लघुकथा का रूप लेती है । लघुकथा पलभर को ऐसा झकझोर कर रख देती है कि शुरू हो जाता है मानस मंथन।

गुरुवार, 22 अगस्त 2024

संरच ना वार्षिकी 2023 /समय ,समाज ,और साहित्य का परिदृश्य

 लघुकथा /सुधा भार्गव

एक  जमाने के अवशेष   



"माँ -माँ मुझे कुछ फोटूयेँ भेज दो।" मोबाइल से आती  आवाज माँ के कानों से टकराई। 

माँ हैरान !"अरे कौन सी भेज दूँ?सुबह सुबह ही लंदन में बैठे यह क्या सनक सवार हो गई!"

"वही जिसमें तुम मुझे रगड़ रगड़कर नहला रही हो ,तेलमालिश कर रही हो और मैं तुम्हें देख कितना खुश!खूब हाथ पैर चला रहा हूँ। और हाँ वो फोटू भी भेज देना जिसमें बड़े प्यार से तुम  दाल भात खिला रही हो और  मैं --मैं तो मुंह खोलकर ही नहीं दे रहा हूँ। बहुत तंग करता था न तुम्हें।" 

"तू क्या जाने  बेटा!माँ को तो इसी बाल लीला में सुख मिलता है।" 

"और माँ वो फोटो भेजना भी न भूलना  जिसमें मैं मुंह फाड़े रो रहा हूँ। तुमने उस दिन थप्पड़ मारा था ना ।" 

"हाँ मार तो दिया था पर  बाद में  मेरा दिल बहुत रोया।"

"अरे आपकी आवाज तो भर्रा गई। मैंने तो ऐसे ही कह दिया माँ। तुमने धीरे से ही मारा था पर मैं गला फाड़कर चिल्ला उठा जिससे बाबा जल्दी से आयें और मुझे ले जाएँ । जब बाबा आप पर गुस्सा हुये तो मन ही मन  बड़ा खुश हो रहा था।" 

"शैतान कहीं का !तुझे अभी तक सब याद है।" 

"हाँ! मैं उस समय पहली कक्षा में था । अच्छा जल्दी से व्हाट्सएप्प से फोटो भेज दो।" 

"अरे बाबा भेजती हूँ –भेजती हूँ । पता नहीं इतने सालों बाद क्यों मांग रहा है!" 

"बाद में बताऊंगा। तुम्हें सरप्राइज़ देना है।" 

कुछ दिनों बाद खामोशी को भंग करती फिर घंटी बज उठी ।  माँ  के क्लिक करते ही खुल जा सिमसिम की तरह फेसटाइम खुल गया। पलंग पर बहू लेटी थी। बेटे के हाथ में नन्हा सा शिशु तौलिये में लिपटा हुआ था। दीवारों पर फ्रेम  में जड़ीं वो फोटुयेँ  थी जो उसने भेजी थीं। 

खुशी से झूमता बेटा बोला -"तुम दादी बन गई माँ ,एक प्यारे से नन्हें गुड्डे की।" इतना कहकर उसने दादी को पोते का चेहरा दिखाया। 

"एँ!तू तो बड़ा छुपा रुस्तम निकला !ताज्जुब ! पोते के होने की इतनी बड़ी बात कैसे महीनों अपने पेट में छिपाए रहा। हा! हा! तूने तो अपने बचपन की फोटुयेँ अभी से लगा दीं। बच्चे को तो बड़े होने में काफी समय है। अभी वह क्या समझे कि उसका बाप कैसा था?"

"मैंने उसके लिए नहीं उसकी माँ के लिए फोटो लगाई  हैं।  मैं चाहता हूँ जिस तरह मेरी माँ ने मुझे पाला उसी तरह मेरे बच्चे की माँ उसे पाले।" 

"यह तो उसके प्रति अन्याय होगा। आखिर तुम अपनी इच्छा उसपर क्यों थोपना चाहते हो। वह भी तुम्हारी तरह पढ़ी लिखी है। नौकरी करती है।" 

"हाँ!तभी तो उसे हमेशा नौकरी की चिंता रहती है। लेकिन वह अब माँ बन गई है। उसे बच्चे के लिए भी समय देना होगा। उसे निश्चित करना होगा कि बच्चा पहले हैं या नौकरी। बच्चा पैदा हुआ नहीं कि क्रेच की खोज  शुरू हो गई।" 

"बेटा उसे समय दे । वह सोचकर ठीक ही  निर्णय करेगी।"

"माँ मैं जानता हूँ उसका निर्णय !बच्चा क्रेच में पलेगा और फिर हॉस्टल के हवाले । वह खुद भी ऐसे ही वातावरण में पली है । पर मैं अपने वातावरण का क्या करूँ  जो तुमने दिया, उसको अनदेखा कैसे करूँ! माँ तुम इसमें मेरी मदद कर सकती हो !बोलो न माँ--!"

बेटे के  अंतर्नाद को सुन  माँ तड़प उठी। "कैसे बेटे !"

“यहाँ आकर माँ । तुम्हारी गोद में खेलकर बेटे के  संस्कारों का प्रह्लाद जरूर सुरक्षित रहेगा।” 

माँ स्तब्ध थी । वह तो  खुद को  गुजरे जमाने के अवशेष समझने लगी थी। 





शनिवार, 4 मई 2024

स्नेह भरे वे पल

 बलराम भाई जी के घर पर धरना


कुछ दिन पहले भाइयों से मिलने दिल्ली जाना हुआ। बलराम भाई जी से भी मिलने गई नोएडा उनकी नए आवास स्थल पर। वैसे जब वे अपने नए घर में गए तो मुझे एक साल तक सूचना नहीं दी लेकिन मैंने भी पता लगा लिया और चिलचिलाती धूप में उनके दरवाजे पर दस्तक दे ही दी। स्नेहभरे आत्मीयता के दो घंटे कैसे गुजर गए पता ही ना लगा। कुछ घर बाहर की बातें हुई कुछ समय लघु कथा पर चर्चा हुई। बातों से तो पेट नहीं भरा लेकिन भाभी जी के हाथ की बनाई गरम गरम चाय और पकोड़े खाकर बड़ी तृप्ति हुई। दुबई की खास मिठाई खाकर तो मजा आ गया ।उससे पहले वह मिठाई मैंने कभी नहीं खाई थी। फिर फलों के खाने का सिलसिला चलता रहा जब तक कि उनसे विदा न ले ली। बस इसी तरह हम अपनों से मिलते रहें ।











रविवार, 3 मार्च 2024

तीसरा लघुकथा संग्रह


'लालटेन' लघुकथा संग्रह 

सुधा भार्गव 

वरिष्ठ साहित्यकार व सुप्रसिद्ध लघुकथाकार श्री  बलराम अग्रवाल जी के शब्दों में -"कोमल संवेदन तंतुओं को झंकृत करती लघुकथाएं" इस संग्रह में हैं।  लघुकथा विश्वकोश में भी यह आपका इंतजार कर रहा है। 

https://laghukathavishwakosh.blogspot.com/2024/03/blog-post_3.html

            

 पृष्ठ 114 के इस संग्रह में  कुल  52 लघुकथाएं हैं । इसके प्रकाशक हैं -श्वेतांशु प्रकाशन नई दिल्ली।प्रथम संस्करण -2023 ।  यह पुस्तक एमोजोन पर भी उपलब्ध है

सोमवार, 10 अप्रैल 2023

प्रयोगात्मक लघुकथाएं

 लघुकथा कलश का  प्रयोगात्मक लघुकथा विशेषांक

2023  में प्रकाशित मेरी दो लघुकथाएं -

साथ ही योगराज प्रभाकर जी  का बहुत बहुत धन्यवाद जिनके कारण लघुकथाकारों को नई शैली की लघुकथा लिखने का उत्साह मिला और वे सफलता पूर्वक लिखी गईं।  


शादी का ठप्पा व अकेलापन 




मंगलवार, 27 दिसंबर 2022

द अंडरलाइन पत्रिका दिसंबर 2002 लघुकथा विशेषांक में प्रकाशित

  



अंकुर 

किटकू का नियम था कि शाम को जैसे ही फुटबॉल खेलकर  लौटता उसके जूते- मौज़े हवा में कलाबाज़ियाँ करते दिखाई देते और फुट बॉल लुढ़कती हुई नाली में दम तोड़ती सी लगती ।लाख बार समझाया होगा कि घर को युद्ध का मैदान न बनाया कर पर वह ठहरा पूरा का पूरा चिकना घड़ा। लेकिन  उसमें एक अच्छी बात थी कि वह कितना भी थका हो पर जल्दी ही अपनी प्यारी दादी के सामने पूरे दिन का चिट्ठा खोलकर बैठ जाता। आज भी कुछ ऐसा ही हुआ। पसीने से लथपथ हाँफता हुआ आया। ।जूते मोज़े और फुट बॉल से छुटकारा पा  चिल्लाया -“ ऐ गोपी जरा ठंडा -ठंडा पानी तो दे जा।” 

बेटा उस गरीब के पैर में मोच  आ गई है ,तू ही बढ़कर ले ले।” 

“उफ --माँ --माँ कहाँ हो ?मैं बहुत थक गया हूँ ,मुझे पानी दे जाओ।” 

माँ सारे काम छोड़ लाडले की आवाज सुन पानी  का गिलास लेकर दौड़ी आई। गला तर कर किटकू का न्यूज चैनल शुरू-“दादी माँ --दादी माँ जानती हो आज मास्टर जी ने क्या कहा ?”

चश्में से दो आँखें झाँकीं जिनमें ढेर सा कौतूहल भरा था। 

“वे कह रहे थे देश को आत्मनिर्भर बना ना हैं।” 

“हूँ पहले बच्चों को तो आत्मनिर्भर बना लें।” दादी बड़बड़ाईं। 

  “क्या बोली दादी?”

“अरे क्या बोलूँ !यही बोलूँ कि बच्चे तो फली तक न फोड़ें । जो अपना काम न कर सके वो देश के लिए क्या करेगा।” 

किटकू खामोश सा  जमीन देखता रहा । फिर उसने अपने जूते- मोजे उठाए और करीने से शू हाउस में रख दिये। 

बंजर भूमि पर उगते पौधे को देख दादी चौंक गई। उसकी आशा पौधे की परिक्रमा करने लगीं। 






 




रविवार, 26 जून 2022

लघुकथा


लघुकथा कलश में प्रकाशित मेरी एक लघुकथा 




औलाद है मेरी  

"अब अपना काम भी समेटो और सामान भी। आखिर बुढ़ापा है माँ तुम्हारा । हमें तो यह पुराने जमाने का कुछ चाहिए नहीं । जिसे देना है दो ,जिसे बांटना है उसे बाँटों। और हाँ ,इन पेंटिग्स का क्या होगा जिनमें तुम्हारी जान बसी है।"  

"चिंता न कर । अपनी  छाती पर रख कर ले जाऊँगी।" माँ की 

पीड़ा शब्दों से फूट पड़ी। 

"ये हो पाता तो शायद कुछ न कहता।" 

"क्यों न हो सके। चिता को आग देते समय  उठती लपटों पर रखदेना  ,सब धूँ धूँ  कर जल उठेगा।" 

"माँ मज़ाक में न लो। मेरी बात ध्यान से सुनो।" 

"तो मेरी बात भी ध्यान से सुन । मैं इनके बिना जीते जी तिल तिल नहीं जलना चाहती।" 

"माँ तुम कहना  क्या चाहती हो?" 

"मैंने तुझे तो पेट में नौ माह ही रखा है। मेरी कुछ पेंटिंग्स को तैयार होने में तो दो दो साल लग गए। उनको निहारती रहती ,उनके इर्दगिर्द चक्कर लगाती कि कब वे पूरी तरह से तैयार हों । मैं बिना सोचे समझे न किसी को दे सकती हूँ। और न पानी में बहा सकती हूँ। ये मेरी औलाद है औलाद ।तू हाड़ मास का होते हुए भी इतनी सी  बात नहीं समझता कि सृजन करने वाला संहारक कैसे बन सकता  है ।"

उसके अन्तर्मन की व्यथा नाक से टपटप बहने लगी जो उसके पल्लू में समा गई।










 

मंगलवार, 19 अप्रैल 2022

मंगलवार, 12 अप्रैल 2022

मेरी दो लघुकथाएं


 अप्रैल अंक 2022 में प्रकाशित

सुधा भार्गव  

 

   1-वात्सल्य की हिलोरें

सोहर गाई जा रही थी । सोहर गीत पीड़ा और  आनंद के खट्टे -मीठे अनुभवों से लबालब भरे हुये थे। जच्चा बनी वह बिस्तर पर लेटे प्रसव की पीड़ा को भुला मातृत्व के अनोखे आनंद  में डूबी हुई थी। बधाइयों का ताँता लगा हुआ था। बच्चे के पैदा होते ही घर में खुशियों की भरमार जो हो  गई थी। । अचानक घर से बाहर तालियों की थाप  पर बहुत से स्वर गूंज उठे। 'अम्मा तेरा बच्चा बना रहे। तेरे आँगन में फूल खिलें । हाय हाय कितनी देर  हो गई बालक कू तो दिखा दे । नहीं तो घर में ही घुस जाएँगे । फिर न कहियों हम ऐसे हैं ।' पुन

:वही तालियों की थाप। अंतिम वाक्य  सुनते ही जच्चा काँप उठी। समस्त ज़ोर लगाकर चिल्लाई -"इनको जो चाहिए दे दो। बच्चा तो अभी अभी सोया है।" 

"अइयो रामा तेरे कलेजे का टुकड़ा हमारा भी तो कुछ लगे है।ठप्प ठप्प … चट्ट चट्ट --कैसे छोड़ देंगे अपनी जात के को।" एक बोली  

"ला-- ला हमारी गोद में डाल दे।" दूसरी बोली। 

बच्चे को उठाए लड़खड़ाती जच्चा बाहर आई।  कातर स्वर में बोली-"न न अभी नहीं। कुछ दिन मेरी गोदी में खेलने दो। कितनी मुश्किल से गोद हरी हुई है । इसके बिना  मैं मर जाऊँगी। कैसा भी है मेरा खून है।" 

"माई  बड़ी -बड़ी  बात न कर । क्या तू इसके लिए अपने पूरे समाज से लड़ सकेगी ।"

 "हाँ हाँ क्यों नहीं!। आज तुम अपने अधिकारों की बात करती हो  तो इससे तो इसका अधिकार न छीनो।  माँ -बाप और घर से उसे अलग करके तुम्हें क्या मिलेगा!" 

"अरी प्रधाना तू क्यों चुप है। कुछ बोलतीं क्यों नहीं!  तू तो पढ़ी लिखी है । मेरी समझ में इसकी बात धिल्लाभर ना आ रही। "प्रधाना की साथिन ही हाथ नचाते बोली । 

 प्रधाना दूसरी दुनिया में ही खोई थी । ‘अपने से अलग करते समय माँ ने उसे कितना चूमा चाटा था । आँचल फैलाकर रुक्का बाई से दया की भीख मांगी थी। पर वह न पिघली तो न ही पिघली । माँ की पकड़ से खीचते हुए वह उसे दूर बहुत दूर ले  गई।’उसकी आँखों से दो आँसू चूँ पड़े। 

"अरे किस दुनिया में खो गई।" उसकी साथिन ने झझोड़ते हुए कहा। 

प्रधाना ने चौंक कर जच्चा की ओर देखा । वह एक माँ की तड़पन देख चुकी थी। एक और माँ को बिलखता देखने की शक्ति उसमें  नहीं थी। 

उसने एक पल गोद में लिए जच्चा को ऊपर से नीचे तक देखा।   फिर दृढ़ता से बोली-‘हम  यहाँ बच्चे को  आशीर्वाद देने आए हैं उसे लेने नहीं।’  


2-धन्ना सेठ

 

      “ आज पहला लॉक डाउन ख़तम होने  वाला था।पर उससे  पहले ही दूसरे  लॉक डाउन की घोषणा हो गई है।यह तो ३ मई तक चलेगा ।”

      “हाँ सिम्मी , पिछले महीने का पैसा तो बाई को दे दिया है ।उसने तो १९ तारीख  तक ही  काम किया था  पर  पप्पू के पापा तो इतने रहम दिल हैं कि क्या बताऊँ !बोले- पूरे माह का ही दे दो। सो भइया  10 दिन  का  ज्यादा ही उसे मिल गया ।लेकिन इस माह तो पूरे महीने काम पर बाई नहीं  आएगी सो उसे तनख्वाह देने की कोई तुक ही नहीं ।”

     “लेकिन बाई का तो कोई कसूर  नहीं ।चाहकर  भी न आ सकी ।”

    “भई मैं तो सब काम नियम -कायदे से  करती हूँ।”

     “शकीला ,कभी -कभी मानवीयता की खातिर नियम- कायदे ताक पर रखने  पड़ते हैं ।२-3 हजार देने से न तुझे कोई कमी होगी न घर भरेगा पर बाई के बच्चों का पेट भर जाएगा ।उनके चेहरे एक बारगी  खिल उठेंगे ।”

       “मैंने क्या उसके पूरे कुनबे  का ठेका ले रखा है!”शकीला चिढ़  सी गई। 

     “ऐसी ही बात समझ।  साल- साल  बाई हमारे काम करती है । एक दिन न आएं तो कितनी परेशानी हो जाती है । फिर उनकी  परेशानी  में हम काम क्यों न आएं ।यह तो फर्ज बनता है ।”

     “फर्ज तो तभी निभाया जाता  है जब  किसी की औकात हो ।तुम्हारा क्या! तुम तो सिठानी हो--- दो-दो होटल चलते  हैं ।”

    “ लोकडाउन में होटल तो बंद हैं।  पर दो कर्मचारियों के रहने और खाने-पीने  की व्यवस्था होटल  में  कर दी है। वक्त -बेवक्त  शायद वे काम आ जाएँ ।”

    “तो हुआ क्या फायदा उनसे--- तुम्हारे घर तो खाना बनाकर ला नहीं सकते ।बाहर निकलने पर भी तो पाबंदी है।” 

     “फायदे की न पूछ --इतना फायदा हो रहा है--- इतनी संतुष्टि मिल रही है कि कह नहीं सकती ! प्रवासी मजदूरों के तो खाने के लाले ही पड़  गए हैं ।नौकरी जो छूट गई !उनके कष्टों को सोच-सोच कर तो मेरे रोयें खड़े हो जाते हैं ।मेरे  दोनों कर्मचारी १०० के करीब मजदूरों को  दोनों वक्त  का खाना बनाकर खिलाते  हैं । सोच तो कितनी दुआएं देते होंगे ।”

     “भगवान् जाने दुआएं देते होंगे भी! पर  यह तो वही बात हुई आ बैल तू मुझे  मार । पैसा तो आपदा में सोच-समझ कर ही खर्च करना होगा। सुनते हैं कोरोना  दानव से निबटने के लिए सरकार को बड़ी -बड़ी फैक्ट्रियों के मालिकों से मदद चाहिए । मालिक भी अपने कर्मचारियों की जेब में ही सेंध लगाएंगे।  कहने को तो  पप्पू के पापा  बड़ी सी फैक्टरी के मैनेजर हैं ,पर उनकी  जेब  पर भी न  जाने कब छापा पड़  जाये ।ऐसे में तो बाई की तनख्वाह देने का सवाल ही नहीं उठता ।तेरा क्या तू तो धन्ना सेठ है ।तुझे ही दान-पुण्य का काम मुबारक हो । 

     “दान पुण्य के लिए धन्ना सेठ होना जरूरी नहीं शकीला --इसका सम्बन्ध तो दिल की अमीरी से है ।”

समाप्त