वेदना-संवेदना के बीहड़ जंगलों को पार करती हुई बड़ी खामोशी से तूलिका सृजन पथ पर अग्रसर हो अपनी छाप छोड़ती चली जाती है जो मूक होते हुए भी बहुत कुछ कहती है । उसकी यह झंकार कभी शब्दों में ढलती है तो कभी लघुकथा का रूप लेती है । लघुकथा पलभर को ऐसा झकझोर कर रख देती है कि शुरू हो जाता है मानस मंथन।

बुधवार, 14 मार्च 2018

प्रकाशित लघुकथा


बाल सुदामाघर 
          *सुधा भार्गव 

      छह मास का नन्हा-मुन्ना बालक ! पेट के बल सरकना उसने शुरू कर दिया था। किसी भी समय करवट ले सकता था। कोई और माँ होती तो उसका दिल बल्लियों उछलने लगता पर वह तो सिर पकड़ कर बैठ गई –हाय री दइया ,इस अपनी जान को किसके भरोसे छोडकर जाऊँ। यह तो कहीं का कहीं सरक जावे। कल तो मजदूरी करने न जा पाई--- आज भी न गई तो हो जावेगी छुट्टी और ये मुआ –मुझ भूखी-प्यासी की सूखी छातियों को चुचुड़-चुचुड़- ---दम ही निकाल देगा।
      अचानक उसके दिमाग में बिजली सी चमकी।  बच्चे को गोदी में ले  झोपड़पट्टी से निकल पड़ी। एक हाथ से बच्चे को सँभाले हुए थी और दूसरे हाथ में एक झोला। जिसमें से रस्सी के टूटे-कुचले टुकड़े झाँकते नजर आ रहे थे। कुछ दूरी पर जाकर उसने बच्चे को सड़क के किनारे पेट के बल लेटा दिया। रस्सी का एक छोर बच्चे के पैर में बांध दिया और दूसरा छोर वही पड़े बड़े से पत्थर से ताकि वह अपनी जगह से हिल न सके। कलेजे पर पत्थर रखकर वह उसे छोड़ पास ही बनने वाले मकान की ईंटें ढोने चली गई।
      ऑफिस जाते समय संयोग से मैं उधर से गुजरी। उस दूधमुंहे बच्चे को देख मेरी तो साँसे ही रुक गईं जो लगातार रोए जा रहा था । हैरानी और खौफ की मिली जुली भावनाओं से बहुत देर तक जख्मी होती रही।बच्चे के आसपास कई लोग कौतूहलवश खड़े थे जिनकी आँखों में एक ही प्रश्न उभर रहा था –यह किस बेरहम का बच्चा है। इतने में सामने से मैली कुचैली धोती पहने एक औरत बदहवास सी दौड़ी आई और बच्चे को उठाकर बेतहाशा चूमने लगी।अंग -अंग टटोलती और कहती जाती –मेरे मनुआ—मेरी जान –तुझे कछु हुआ तो नहीं। फिर बच्चे को सीने से लगा बबककर रो पड़ी।
      मैं तो उसे देख क्रोध की आग में जल उठी और जी चाहा उसका मुंह नोच लूँ। आँखें तरेरते बोली-"तू कैसी माँ है।,इतने छोटे से बच्चे को बेसहारा सड़क पर छोड़ चली गई। एक मिनट को भी तेरा कलेजा न काँपा।"
      "माई क्या करूँ मजदूरी करने जाऊँ तो अपने लाल को कहाँ छोड़ू। लगे तो तू भी काम वाली है। माई तू कहाँ छोड़े है अपने बच्चों को।"   
      "मैं बालघर में छोड़कर जाती हूँ।"
     "भागवाली, मुझे भी ऐसा कोई घर बता दे न,जहां मेरी सी अभागिनें माँ  अपने बच्चों को छोड़ दें और बेफिक्री से मजदूरी कर सकें।"
      उसने मेरे दिमाग में हलचल पैदा कर दी पर अपना मुंह न खोल सकी। कोई बाल सुदामा घर होता तो बताती।

1 टिप्पणी:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (16-03-2017) को "मन्दिर का उन्माद" (चर्चा अंक-2911) पर भी होगी।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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