वेदना-संवेदना के बीहड़ जंगलों को पार करती हुई बड़ी खामोशी से तूलिका सृजन पथ पर अग्रसर हो अपनी छाप छोड़ती चली जाती है जो मूक होते हुए भी बहुत कुछ कहती है । उसकी यह झंकार कभी शब्दों में ढलती है तो कभी लघुकथा का रूप लेती है । लघुकथा पलभर को ऐसा झकझोर कर रख देती है कि शुरू हो जाता है मानस मंथन।

गुरुवार, 4 अक्तूबर 2012

लघुकथा











मौलिकता /सुधा भार्गव

-अगले महीने मेरी चार पुस्तकें प्रेस से निकलने वाली हैं I
२६जनवरी को लोकार्पण है आना I
-जरूर आऊँगा
-तुम आजकल क्या कर रहे हो ?
-लिख रहा हूँ I
-फिर छपवाते क्यों नहीं !
-साधन नहीं I
-तो लिखने से क्या फायदा !
-लिखना मेरी मजबूरी हैI
-लाओ ,मैं छपवा दूँ
-इसके बदले मुझे क्या करना होगा ?
-अपनी कुछ अप्रकाशित -मौलिक रचनाएँ मेरे --नाम |

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