वेदना-संवेदना के बीहड़ जंगलों को पार करती हुई बड़ी खामोशी से तूलिका सृजन पथ पर अग्रसर हो अपनी छाप छोड़ती चली जाती है जो मूक होते हुए भी बहुत कुछ कहती है । उसकी यह झंकार कभी शब्दों में ढलती है तो कभी लघुकथा का रूप लेती है । लघुकथा पलभर को ऐसा झकझोर कर रख देती है कि शुरू हो जाता है मानस मंथन।

गुरुवार, 24 जुलाई 2014

लघुकथा


महाभोज /सुधा भार्गव




विवाहोत्सव का महाभोज । मसालों की खूशबू और स्वादिष्ट खाद्य-पदार्थों की सौंधाहट वातावरण में ऐसी घुली कि फूलों की महक भी उसके सामने फीकी पड़ गई। जिसने लोगों की  जठराग्नि में घी का काम किया।  खूब छककर परोसा जा रहा था ,खूब छककर खाया जा रहा था। इधर एक कचौरी पेट मे गई उधर दूसरी पत्तल में हाजिर !जब पेट ठूंस ठूंस करभर  लिया गया तो हाथ झाड़कर उठ खड़े हुए,बिना अंदाजा लगाए कि पत्तल में नष्ट होने के लिए क्या –क्या छोड़ दिया गया है। तभी एक आदमी खाली टोकरी लेकर आया और पत्तलों में से साबुत ,अनछुई पूरी कचौरी, लड्डू -इमरती आदि उठाकर टोकरी में रखने लगा। 

एक सज्जन चिल्लाए—अरे ,यह जूठन बटोरकर कहाँ ले जा रहा है। क्या अगली पंगत में बैठने वाले भद्र लोगों  को यह जूठन परोसी जाएगीऐसा पाप ---राम –राम ।
-नहीं साहब ,ऐसा अनर्थ मैं कैसे कर सकता हूँ मगर इससे पेट तो भरा जा सकता है। दरवाजे से बाहर बच्चों की कतार लगी हुई है। बड़ी आस से मेरी प्रतीक्षा कर रहे हैं। न जाने कब से एक निवाला उनके मुंह में नहीं गया ।उन्हीं के लिए यह सब है। आपने मन से खाया और खूब लिया पर इसका मतलब यह तो नहीं कि भोजन को बर्बादकर उसे कचरे के ढेर में डाल दो। 

-थोड़ी –बहुत झूठन तो छोड़ी जाती है वरना लोग कहेंगे –‘क्या नदीदे थे  पत्तल चाट गए।पर जूठन तो झूठन ही है, चाहे कोई खाए! भुखमरों की औलाद को खिलाने से भी तू पाप का भागीदार बनेगा ,मैंने बस कह दिया। सज्जन महाशय अपना आपा खो बैठे और तू तड़ाक पर उतर आए ।
-साहब, भूखे पेट की न कोई जात  होती है और न कोई धर्म । मैं भी नहीं जानता कि मुझे पाप मिलेगा या पुण्य पर इतना जरूर है कि उनके मुरझाए चेहरों पर आई खुशी को देख मुझे भी खुशी मिलेगी। 


रविवार, 6 जुलाई 2014

लघुकथा

आखेटक/सुधा भार्गव 

(सृज्यमान में प्रकाशित)

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एक जोड़ा समुद्र तट पर बैठा था। आकाश को निहारने ,लहरों की तरह अठखेलियाँ करने ही तो वहाँ गया था। उस संध्या हारा-थका सूर्य ,सिंदूरी आभा बिखेरता आकाश में जा छिपा पर उस दृश्य की खुमारी में वह जोड़ा रात भर इतना डूबा रहा कि कब मदमाती सरिता उबलते समुद्र में मिल गई,पता ही नहीं चला।

अगली सुबह दूर क्षितिज में शिशु सा पैर मारता ,किलकारी भरता मणि सा सूर्य प्रकट हुआ।  विकास की सीढ़ियों पर पैर जमाता नन्हा शिशु शीघ्र ही पूर्णता को प्राप्त  हुआ। जोड़े ने भी पूर्णता की ओर कदम बढ़ा दिए। इस सुनहरे आँचल में  एक -दूसरे को सहलाते।सटे –सटे से जिस्मानी भाषा की सुगबुगाहट में वर्षों की दूरी न जाने कहाँ घुल गई। उस जोड़े मेँ एक शिकारी था तो दूसरी नन्ही चिड़िया। फिर भी वह उसका रक्षक बना हुआ था। उसके बाहुपाश में धूप की –सी गुनगुनाहट मिलती वह फुदकती,चहकती,गाती और बलिष्ठ हथेली पर आन बैठती। न नर न मादा,बस दो शरीर एक प्राण । 

घोंसले में लौटते ही प्राणों की लय टूट गई। दो तन,पृथक -पृथक सांस । वह  किरण फूटते ही उसे छोडकर निकल गया। घंटों बाद लौटा। आते ही आँखें बिछा दीं, बाहें पसार दी। 
वह फूट पड़ी –कहाँ गया था?
-कहाँ गया !यहीं हूँ तेरे पास। गया था तो आ भी गया। वही समुद्री कल्लोल,चाहत का शंखनाद।

  पलक झपकते ही वह सीप का मोती बन गई।


गुरुवार, 19 जून 2014

लघुकथा


बेड़ियों की जकड़न  /सुधा भार्गव

तिरुपति  मंदिर
-पंद्रह  सालों  से  बेड़ियों  में  जकड़ा  हुआ  है  वह। 
-क्यों ?
-मानसिक  विक्षिप्त  है I बुढ़ापे  में  सहारा  बनने  की  बजाय पिता  पर  बोझ  बन  गया  है  हरियाI
-इलाज  तो कराया  होगा I
-हाँ, उधार  लेकर।   अब  बूढ़ा  बाप मटकी  बनाकर  हजार  आस  लिए बाजार  जाता  है और  सस्ते  में  बेचकर  लौटता हैI  कभी -कभी  तो  लागत का  खर्चा  भी  नहीं  निकल  पाता।                                  अनुदान  देने  वाला  कोई  माई  का  लाल नहीं  मिला
 -कुछ ना  पूछो! सहायता  पाने  को भागते-भागते  एड़ियाँ घिस  गईं।     सरकारी  सहायता  मिली  न किसी  धन्ना  सेठ  का  दिल  पिघला। 
  -सुना  है  तुम  तिरुपति  बाला  जी  जा  रहे होI
-हाँ, बीस  तोले  सोना  मंदिर  में दान  की  झोली  में  डालना है I
-बीस  तोले सोना! भगवान्  क्या  करेंगे  उसकाI  हरिया  के  नाम  बैंक  में  क्यों  नहीं  जमा  कर  देते।  ब्याज  से  उसका  इलाज  हो  जायेगाI  गरीब  का  भी  भला , तुम्हारा  भी  भलाI
-मेरा  क्या  भला  होगा  ,जरा  मैं  भी  तो  सुनूँI
-गरीब की  दुआ  का सात  जन्मों  तक  असर होता  है। उसकी  झोंपड़ी  में  ही  तो  ईश्वर  का  निवास  हैI
-तुम्हारा  ईश्वर  रहता  होगा  झोंपड़ी  में, मेरा  तो  मंदिर  में रहता  है  वह  भी  बड़ी  शान  से। 

आकाश  निरुपाय  था I बेड़ियों  में  जकड़ी  जिन्दगी  तो  उसे  अपने  दोस्त  की  भी लगी जो लोहे से  भी  अधिक मजबूत  थी।   


बुधवार, 11 जून 2014

लघुकथा

अन्न देवता /सुधा भार्गव  




दीनानाथ  बेटे की शादी करके फूले नहीं समा रहे थे। खुशियाँ उनसे संभाले नहीं सँभल रही थीं । दहेज में उम्मीदों से बहुत चढ़बढ़कर बेटी के बाप ने उसकी सुख –सुविधाओं को ध्यान रखते हुए एक सुंदर सा फ्लैट और सैर सपाटे  को नीली कार दे दी थी ।

दीनानाथ सोचने लगे –अब तो समाज में मेरा ओहदा बढ़ गया है। विवाह भोज मुझे अपनी नई औकात के अनुसार ही देना होगा ।उन्होंने औकात वालों  को ही प्रेम से आमंत्रित किया । ठीक समय पर बड़ी बड़ी कारों से रंग बिरंगे परिधानों से सुसज्जित जोड़े उतरने लगे । हाथों में चमकीले पेपर में लिपटे उपहारों के बड़े --बड़े पैकिट थामे हुए थे। वर -बधू को आशीर्वाद देते हुए उपहारों से मुक्ति पाई और  शीघ्र ही स्वादिष्ट भोजन का जायका लेने चल दिए । कुछ इस आशंका से भी ग्रस्त दिखाई दे रहे थे कि देरी से पहुँचने पर खाना ही कम न पड़ जाए। बल्बों की रोशनी में मेजों की सफेद चादरें  झिलमिला रही थीं और इनके ऊपर बिछी थी पत्तलें । हर मेज पर खातिरदारी करने को दो सेवक तैनात थे।  लोग इतने अच्छे इंतजाम को देख बड़े खुश !

बड़ी नजाकत से लोग बैठने लगे । पर कुर्सी पर पसरते ही  उनकी नजाकत न जाने कहाँ गुम हो गई। भोजन करना शुरू हुआ तो रुकने का नाम नही ले रहा था । पेट में नमकीन –मिठाई  की कई परतें लग चुकी थीं पर पत्तलों में परोसने वाले दै दनादन कचौरी रसगुल्ले डाले जा रहे थे। मालिक का हुकुम था कोई भरपूर पेट पूजा किए बिना घर न जाने पाए जिससे वे तीन चार दिन तो इस भोज को याद रखे ।खाने वाले भी मना करने से हिचकिचाते। पेट भरने से क्या होता है नियत तो नहीं भरी थी।अगर उनका वश चलता तो अपने साथ बांधकर ले जाते । इक्का –दुक्का ही इसके अपवाद थे जो सोच -समझकर ले रहे थे और पत्तल सफाचट्ट करके जाना चाहते थे। विनायक बाबू उन्हीं में से एक थे जो अपने सात वर्षीय बेटे और धर्मपत्नी के साथ आए हुए थे।
उनका बेटा बोला –माँ –माँ एक रसगुल्ला और।

-हाँ –हाँ ,एक नहीं दो दिलवा देती हूँ ।  
पास से रसगुल्ले का भगोना लिए आदमी गुजरा ।
-सुनो ,मेरे कन्हैया को दो रसगुल्ले तो दे दो और हाँ मेरी पत्तल में भी डाल दो। माँ ने गुहार लगाई।
बच्चे ने एक रसगुल्ला खाया और नाक भौं सकोड़ने लगा।  
-क्या हुआ ?माँ का दिल धुकधुक करने लगा।
-अब नहीं खाया जाता ।
-छोड़ दे –छोड़ दे ,कहीं पेट में दर्द न हो जाए ।
वात्सल्य रस की धारा में बाधा डालते पास बैठे पति महोदय अचानक बोल उठे-जब तू खा नहीं सकता था तो दो क्यों लिए  फिर भौं टेढ़ी करके अपनी पत्नी की ओर उन्मुख हुए -तुम भी एक हो –उसने मांगा एक और तुमने डलवा दिए दो । झूठन छोडने से क्या फायदा । घर में तो हमेशा नारे बाजी करती रहती हो –जूठा छोडना अन्न देवता का अपमान करना है । एक –एक दाने पर नजर रखती हो । यहाँ तुम्हारी सोच कैसे बदल गई ?

पत्नी ने इधर –उधर नजर घुमाई और फिर पति को घूरती बोली –उफ !जरा धीरे बोलो । हर जगह उपदेश झाड़ते रहते हो। घर की बात कुछ और होती है बाहर की कुछ और । 

(लघुकथा संकलन संरचना अंक 7,2014 में प्रकाशित )

सोमवार, 12 मई 2014

बड़े ज़ोर –शोर से मनाए जाने वाले मातृ दिवस पर


मेरी दो लघुकथाएँ /सुधा भार्गव 


1-हैपी मदर्स डे 

बेटा तीन साल के बाद पढ़ाई करके विदेश से लौटने वाला था । उसने लौटने का दिन हैपी मदर्स डे चुना। वह इस दिन पहुँचकर माँ को चौंका देना चाहता था। आते ही माँ के पैर छुए और बोला माँ –हैपी मदर्स डे।
-हैपी मदरस डे !यह क्या होता है ।
-आज के दिन पूरी दुनिया में हैप्पी मदर्स डे मनाया जा रहा है । लोग अपनी माँ को याद करते हैं। उससे मिलने जाते हैं। उसका विशेष आदर कर तोफे देते हैं। देखो मैं मिलने आ गया और तेरे लिए कीमती तोफा भी लाया हूँ ।
-बस –बस—बहुत हो गया गौरव गान! क्या साल के 365 दिनों में केवल एक दिन को ही तेरी माँ रहती हूँ ?

2-याद न रहा

माँ –बेटे उस छोटे से घर में बड़े आराम से रहा करते पर बेटे की शादी के बाद वह घर छोटा पड़ने लगा । फिर एक बच्चा भी हो गया । पत्नी जिद करने लगी कि किराए पर एक दूसरा फ्लैट पास में ही ले लो ।
-क्या बात करती हो !दुनिया क्या कहेगी ! इसके अलावा मैं भी तो माँ से अलग नहीं रह सकता ।
-आप तो बच्चों की तरह बातें करते हो। मैं भी तो अपने माँ-बाप को छोडकर आपके पास रह रही हूँ । अच्छा ऐसा करो –अपना ट्रांसफर दूसरी जगह करा लो ।तब तो किसी को कुछ कहने का मौका ही नहीं मिलेगा और हमारी ज़िंदगी भी खूबसूरत मोड़ ले लेगी ।
-तुमने ठीक कहा। माँ को भी अपने साथ ले चलेंगे । वह भी नया शहर देख लेगी । पिताजी के मरने के बाद वह इस छोटे से घर से निकली भी नहीं हैं ।
-अभी तो हम खयाली पुलाब ही बना रहे हैं । ट्रांसफर लेकर पहले जम तो जाओ फिर माँ जी को बुलाने की सोचना ।

ट्रांसफर आर्डर हाथ में आते ही बेटा उछल पड़ा –माँ –माँ देखो मेरा ट्रांसफर ऑर्डर । मैं बड़े से शहर में  जा रहा हूँ ।तुझे  भी अपने साथ ले जाऊंगा । मिल मिलकर खूब घूमेंगे । वहाँ मेरी तरक्की होने का मौका भी हैं । 
-बेटा ,भगवान तुझे खूब तरक्की दे। पर मैं तेरे साथ न जा सकूँगी । तेरे पिता ने बड़े शौक से इस घर को बनवाया था । मुझे इससे मोह हो गया है । हाँ बीच –बीच में मिलने जरूर पहुँचूँगी। 

बेटा मन मारकर दूसरे शहर चल दिया पर अगले हफ्ते ही रविवार को माँ के पास आन धमका ।
माँ हैरान ! -बेटा यहाँ तू कैसे । तुझे तो नई जगह में बहुत काम होगा ।
-हाँ माँ बहुत काम है और काम के चक्कर में मैंने तुझे बहुत भूलाने की कोशिश की। सब याद रहा पर तुझे भूलना ही याद न रहा।