वेदना-संवेदना के बीहड़ जंगलों को पार करती हुई बड़ी खामोशी से तूलिका सृजन पथ पर अग्रसर हो अपनी छाप छोड़ती चली जाती है जो मूक होते हुए भी बहुत कुछ कहती है । उसकी यह झंकार कभी शब्दों में ढलती है तो कभी लघुकथा का रूप लेती है । लघुकथा पलभर को ऐसा झकझोर कर रख देती है कि शुरू हो जाता है मानस मंथन।

शुक्रवार, 22 मार्च 2013

हिन्दी चेतना में प्रकाशित


पुरस्कार /सुधा भार्गव 

 यह उन दिनों की बात है जब मैं कलकत्ते में जय इंजीनियरिंग वर्क्स के अंतर्गत उषा फैक्ट्री में इंजीनियर था । जितना ऊँचा ओहदा उतनी  भारी भरकम जिम्मेदारियां !खैर --मैं चुस्ती से अपने कर्तव्य पथ पर अडिग था । 

अचानक उषा फैक्ट्री में लौक आउट हो गया । छह माह बंद रही । हम सीनियर्स को वेतन  तो मिलता रहा पर रोज जाना पड़ता था । आये दिन मजदूर अफसरों का घिराव कर लेते थे क्योंकि लौक आउट होने का कारण ,वे उन्हें  ही समझते थे । 

;माह के बाद नींद हराम हो गई।  तरह -तरह की अफवाहें जड़ ज़माने लगीं --बंद हो जायेगा वेतन मिलना ,छंटनी होगी कर्मचारियों की ,इस्तीफा देने को मजबूर किया जायेगा --फैकट्री बंद हो जायेगी । 
दिन -रात मैं सोचता -भगवान् नौकरी छूट गई तो क्या होगा --|तीन बच्चों सहित कहीं एक दिन भी गुजारा नहीं । 

एक अन्तरंग मित्र जो देहली   में रहते थे सलाह दी -एक माह की छुट्टी लेकर तुम यहाँ आ जाओ । मशीने मैं  खरीदूंगा तुम कार के पार्ट्स बनाना । 
वहाँ जाकर मैंने कार के पार्ट्स की ड्राइंग की फिर उसके अनुसार  पार्ट्स बनवाये । मैंने अपनी सफलता की सूचना मित्र को  बड़े उत्साह से दी । 

वे बोले- ---पार्ट्स तो बनवा लिए पर इनके  विज्ञापन का कार्य भी आपको करना पड़ेगा । प्रारंभ  में तो दरवाजे -दरवाजे आपको ही जाना पड़ेगा । इनके इस्तेमाल करने से होने वाले फायदे आपसे ज्यादा अच्छी तरह दुकानदारों को कौन समझा सकेगा । उनकी मांग  पर निर्भर करेगा कितना माल बने । व्यापार में शुरू -शुरू में अकेले ही करना पड़ते है । मेरा  मतलब माल बनाना ,बेचना ,पैसा उगाहना । 

व्यापार के मामले में  मैं नौ सीखिया--बाप दादों में कोई व्यापारी नहीं --इतनी भागदौड़ वह भी अकेले।  फैक्ट्री में तो अलग -अलग विभाग के अलग दक्ष अफसर व कर्मचारी । यहाँ मैं समस्त विभागों की खूबियां  अपने में कैसे पैदा करूँ !
इस डावांडोल परिस्थिति में मैंने निश्चय किया -पार्ट्स लुधियाना में छोटे छोटे कारखानों से बनवाकर उन्हें बेचूँगा । लुधियाने मैं मेरी जान पहचान भी थी । 

कार का एक विशेष पार्ट ५रुपये का बना । मैंने उसकी कीमत १०रुपये रखी । इस बारे में दोस्त की सलाह लेनी भी आवश्यक समझी । 
 बोले- -१०रुपये तो बहुत कम है ,१५ रखिये । 
-इतनी ज्यादा ! पार्ट बिकेगा नहीं । 
-सब बिकेगा |जो ज्यादा से ज्यादा झूठ बोलने वाला होता है वही बड़ा व्यापारी बनता है । यहाँ ईमानदारी से काम नहीं चलता । 

कई  दिन गुजर गये पर उनकी बात पचा न पाया। मेरी स्थिति बड़ी अजीब थी !पैसा मेरा दोस्त लगा रहा था  इस कारण उसकी बात माननी जरूरी थी मगर मानूँ कैसे !मेरी आत्मा कुलबुलाने लगती ,बार -बार धिक्कारने आ जाती । आखिर   हिम्मत करके एक सुबह बोल ही  दिया -
-यार ,मुझसे यहाँ काम धंधा  नहीं होगा । कलकत्ते ही वापस जा रहा हूँ । 
-जानता था --जानता था ,तुमसे कोई काम नहीं होगा |ये इंजीनियर सब बेकार होते हैं |
उस पल मैं हजार बार मरा होऊंगा ----। 

कलकत्ते पहुँचते ही फैक्टरी गया । मेरी मेज पर एक लिफाफा रखा हुआ था । काँपते हाथों से उसे खोला । लग रहा था सैकड़ों  बिच्छू  एक साथ उँगलियों में डंक मार रहे हों । 
मेरे नाम पत्र था -- 
आपकी ईमानदारी व मेहनत से प्रशासक वर्ग बहुत प्रभावित है । अत :खुश होकर आपको हैदराबाद भेज रहे हैं ताकि फैन  फैक्टरी में भी विकास विभाग संभालकर नये -नये डिजायन के पंखों का निर्माण करें । 
 हमारी शुभ कामनाएं आपके साथ हैं । 


गूगल से साभार 


 प्रकाशित -हिन्दी प्रचारिणी सभा (कैनेडा )की अंतर्राष्ट्रीय त्रैमासिक पत्रिका  हिन्दी चेतना लघुकथा विशेषांक  अक्तूबर 2012 में. 

हिन्दी चेतना की लिंक है  - http://hindi-chetna.blogspot.in/

9 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा शनिवार (23-3-2013) के चर्चा मंच पर भी है ।
    सूचनार्थ!

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  2. Aapki yeh laghu katha uchch koti ki hai.Isse hamari aane wali pidiyon ko sahi sandesh v disha dene men madad milegi.Imandari/Mehnat hamesha rang lati hai.

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  3. ईमानदारी है तो सब नेमत है ...आपकी कहानी बहुत अच्छी और मन को छू लेने वाली है

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  4. आपकी पोस्ट के लिंक की चर्चा कल शनिवार (23-03-2013) के  चर्चा मंच  पर भी होगी!
    सूचनार्थ... सादर!

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  5. सच और ईमानदारी कभी नहीं हारती ...सच में एक नई सोच का संचार हुआ

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  6. आप सबकी टिप्पणी से मुझे बहुत ऊर्जा मिली और लिखने को तूलिका और आगे बढ़ी । बहुत -बहुत धन्यवाद ।

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