वेदना-संवेदना के बीहड़ जंगलों को पार करती हुई बड़ी खामोशी से तूलिका सृजन पथ पर अग्रसर हो अपनी छाप छोड़ती चली जाती है जो मूक होते हुए भी बहुत कुछ कहती है । उसकी यह झंकार कभी शब्दों में ढलती है तो कभी लघुकथा का रूप लेती है । लघुकथा पलभर को ऐसा झकझोर कर रख देती है कि शुरू हो जाता है मानस मंथन।

सोमवार, 28 जून 2010

लघुकथा


मूर्छाचक्र







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-तुम डायबिटीज के रोगी - - - !पर मिठाई से इतना मोह !बहुत खतरा है | डाक्टर ने समझाने की कोशिश की |

-किसे ?

-जिन्दगी को |

-कहाँ खतरा नहीं है !रेल में तो
,हवाई जहाज में तो - - -पैदल तो - - - कार में तो - - - | फिर डरना क्या ! मुझे मिठाई बहुत अच्छीलगती है |क्यों छोडूँ ! मरूँ तो परवाह नहीं |

-हो सकता है पॉँच वर्ष अधिक जी लो |

-क्या फर्क पड़ता है पॉँच वर्ष कम या ज्यादा |एक दिन मौत तो आयेगी ही |

-हाँ , मौत तो आयेगी ही |मगर तुम किस प्रकार मरना पसंद करोगे ?एक तो वह आये ,तुम हँसते -हँसते उसका स्वागत करो औरशांत हो जाओ | दूसरे , वह आये अपने साथ काँटे लाये ,उनकी चुभन से तुम तड़पते -कराहते जाओ |

सुनने वाले का मूर्छा चक्र टूटने लगा |
वह चिल्लाया -समझ गया - - -समझ गया |

-क्या समझे !

-यही कि
शान से जीते हो तो मरना भी शान से है |


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