हवा -हवाएँ/सुधा भार्गव
पति के स्वर्गवास को 15 दिन होते -होते बेटियां ससुराल चली गईं ।रह गई वह और उसका छोटा बेटा -बहू ।
अकेले पन का बोझ उठाये घर के कोने कोने में घूम घूमकर उसकी आँखें किसी को ढूँढ़ रही थीं |
अचानक पति की फोटो पर निगाह पड़ी जिसे उसके बच्चों ने न जाने कब- कब में भगवान् के चित्र के पास ही टांग दी थी ।
मन में आये विचार शब्दों में फूट पड़े -
-बेटा कल से एक माला ज्यादा ले आना ।भगवान् के साथ साथ तुम्हारे पापा की फोटो पर भी माला चढ़ा दिया करूँगी |
सुनते ही बहू बोल पड़ी --
-भगवान् की बात तो समझ में आती है पर पति ---
- ऊंह पति क्या परमेश्वर होता है !
-बहू ,बात है मानने की । तुम्हारे ससुर मेरे मार्ग दर्शक थे फिर उम्र में भी बड़े , इस दृष्टि से वे सम्मान के हकदार तो हैं ही ।
-बहू ,बात है मानने की । तुम्हारे ससुर मेरे मार्ग दर्शक थे फिर उम्र में भी बड़े , इस दृष्टि से वे सम्मान के हकदार तो हैं ही ।
सास चुप हो गई पर दो आँखें अनायास चमक उठीं और दो आँखें---- झुकी -झुकी सी थीं ।
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बहुत मार्मिक प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएंबात विश्वास की ही है .... अच्छी लघुकथा
जवाब देंहटाएंमैं संगीता दीदी की बात से सहमत हूँ...विश्वास के साथ साथ एक आदर और उम्र का बंधन भी हैं जिसे हम मन से साथ जीते हैं ..
जवाब देंहटाएंअंजू चौधरी की बात से सहमत हूँ
जवाब देंहटाएंआप सबकी अमूल्य टिप्पणी के लिए हृदय से आभार |भविष्य में भी इसी प्रकार का सहयोग देते रहिएगा |
जवाब देंहटाएंसच है बात विश्वास की है........
जवाब देंहटाएंसुन्दर कथा.
सादर
अनु
आपकी अमूल्य टिप्पणी के लिए शुक्रिया |
जवाब देंहटाएंसुन्दर विचारणीय प्रस्तुति.
जवाब देंहटाएंमेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है.
जो सम्मान का अधिकारी है , वह ही पूज्य है ...
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