सोमवार, 21 सितंबर 2009

मेरी पहली लघुकथा


शेरनी हार चुकी थी

रोजाना की तरह छमिया बड़बड़ करती ,धम धमाती घर में घुसी !पॉँच -पॉँच घरों में बर्तन मांजते -मांजते थककर चूर ! दौड़ती हुई धोती लेकर नहाने घुस गई !ठंडे पानी से नहाकर प्रेस की गई धोती पहनकर आई तो रूप निखर आया !सामने थाली में भात !गदगद उठी। सपड़-सपड़ खा वह तो चादर ओढ़ खर्राटे भरने लगी !दो घंटे बाद फिर से कामपर बर्तनों की चाकरी में जो जाना था !एक बार भी उसने उसके बारे में नहीं सोचा जिसकी बदौलत बिना हाथ हिलाए पका भात मिल गया था !बस अपनी धुन में मस्त थी ! किसनू भी थोड़ी देर बाद अपनी औरत की बगल में आ लेटा !उसके दो बोलों को तरस रहा था ,पर पत्नी को छूने की हिम्मत नहीं हुई !

कुछ समय बाद वह उठा !छमिया के छोड़े कपड़े कूट- कूट कर सुखाये !रसोई साफ की और चाय बनाकर आवाज लगाई--
'अरी उठ ,चाय पी ले !देर होने से मालकिन खफा होगी !'
'सोने दे ,देह दुःख रही है !'
'ला दबा दूँ !'
'बस रहने दे !ला चाय दे दे !अरे राम ,बड़ी गरम चाय है ,ले आधी तू पी ले!'
'ला ,यह तो अमृत है !'
'बस रहने दे ,तुझे तो सारे दिन रासलीला ही सूझे है !'
किसनू का मुहँ छोटा सा हो गया और चल दिया छुन्नू के रोने की आवाज सुनकर !
छमिया के नाम पर ही तो उसने अपने बेटे का नाम रखा ताकि उसको बुलाते समय छमिया के नाम का संगीत गूजें! दूध की बोतल उसके मुंह से लगा दी !छमिया ने देखा तो संतोष से उसकी आँखें चमकने लगीं !किसनू पर प्यार आया  पर छमिया का स्वार्थ साफ झलक रहा था !किसनू उसकी औलाद की इतनी देखभाल न करता तो उसे कभी का  छोड़ कर भाग जाती । 
उस दिन अँधेरा जल्दी हो गया ,बादलों में बरसने की होड़ लगी थी !किसनू को चैन कहाँ ,--आँखे दरवाजे की तरफ ही लगीं थीं !हांफते हुए छमिया घर में घुसी ,ऊपर से नीचे तक भीगी ! किसनू की आँखें उस पर टिकी की टिकी रह गईं !छमिया अनदेखा करती आगे बढ़ गई । अपने बच्चे की ओर देखा और उसे चूमने लगी। किसनू एक मिनट सहता रहा ,अपने को काबू में न रख सका ।  बलिष्ट भुजाओं में उसे जकड़ कर यौवन की चिंगारी प्रज्जवलित कर ही दी !छमिया को इस अचानक हमले की आशा न थी । निढाल होकर बोली --'तू तो सारे दिन खटिया तोड़े है और रात को मेरी हड्डियाँ !'
शांत रहने वाले किसनू को उसकी बात गहरी चुभन दे गई !उसका पौरुष जाग उठा -
'कल से मैं दो घंटे सुबह दो घंटे शाम बाहर जाया करूँगा। '
'काहे ?
'काम करने !'
'तुझे तो साल में दो महीने ही राजगिरी का काम मिले है !बरसात में भला कहाँ काम ?
'करने को बहुत काम !रिक्शा चलाऊंगा ,बोझ उठाऊंगा ,नहीं तो किसी होटल में बरतन ही माँज लूँगा !काम करने में काहे की शर्म। '
'काम पर कैसे जाऊँगी ?'
'मैं क्या जानूँ ,तुझे तो मुझसे बहुत शिकायत रहत है !अब तू ही सोच के सुबह बता दीजो ,मुझे क्या करना है !'
'उसे विचारों के भंवर में छोड़ करवट बदलकर किसनू सो गया पर छमिया की आँखों में  नींद कहाँ ? शेरनी हार चुकी थी। 

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