मंगलवार, 27 दिसंबर 2022

द अंडरलाइन पत्रिका दिसंबर 2002 लघुकथा विशेषांक में प्रकाशित

  



अंकुर 

किटकू का नियम था कि शाम को जैसे ही फुटबॉल खेलकर  लौटता उसके जूते- मौज़े हवा में कलाबाज़ियाँ करते दिखाई देते और फुट बॉल लुढ़कती हुई नाली में दम तोड़ती सी लगती ।लाख बार समझाया होगा कि घर को युद्ध का मैदान न बनाया कर पर वह ठहरा पूरा का पूरा चिकना घड़ा। लेकिन  उसमें एक अच्छी बात थी कि वह कितना भी थका हो पर जल्दी ही अपनी प्यारी दादी के सामने पूरे दिन का चिट्ठा खोलकर बैठ जाता। आज भी कुछ ऐसा ही हुआ। पसीने से लथपथ हाँफता हुआ आया। ।जूते मोज़े और फुट बॉल से छुटकारा पा  चिल्लाया -“ ऐ गोपी जरा ठंडा -ठंडा पानी तो दे जा।” 

बेटा उस गरीब के पैर में मोच  आ गई है ,तू ही बढ़कर ले ले।” 

“उफ --माँ --माँ कहाँ हो ?मैं बहुत थक गया हूँ ,मुझे पानी दे जाओ।” 

माँ सारे काम छोड़ लाडले की आवाज सुन पानी  का गिलास लेकर दौड़ी आई। गला तर कर किटकू का न्यूज चैनल शुरू-“दादी माँ --दादी माँ जानती हो आज मास्टर जी ने क्या कहा ?”

चश्में से दो आँखें झाँकीं जिनमें ढेर सा कौतूहल भरा था। 

“वे कह रहे थे देश को आत्मनिर्भर बना ना हैं।” 

“हूँ पहले बच्चों को तो आत्मनिर्भर बना लें।” दादी बड़बड़ाईं। 

  “क्या बोली दादी?”

“अरे क्या बोलूँ !यही बोलूँ कि बच्चे तो फली तक न फोड़ें । जो अपना काम न कर सके वो देश के लिए क्या करेगा।” 

किटकू खामोश सा  जमीन देखता रहा । फिर उसने अपने जूते- मोजे उठाए और करीने से शू हाउस में रख दिये। 

बंजर भूमि पर उगते पौधे को देख दादी चौंक गई। उसकी आशा पौधे की परिक्रमा करने लगीं। 






 




रविवार, 26 जून 2022

लघुकथा


लघुकथा कलश में प्रकाशित मेरी एक लघुकथा 




औलाद है मेरी  

"अब अपना काम भी समेटो और सामान भी। आखिर बुढ़ापा है माँ तुम्हारा । हमें तो यह पुराने जमाने का कुछ चाहिए नहीं । जिसे देना है दो ,जिसे बांटना है उसे बाँटों। और हाँ ,इन पेंटिग्स का क्या होगा जिनमें तुम्हारी जान बसी है।"  

"चिंता न कर । अपनी  छाती पर रख कर ले जाऊँगी।" माँ की 

पीड़ा शब्दों से फूट पड़ी। 

"ये हो पाता तो शायद कुछ न कहता।" 

"क्यों न हो सके। चिता को आग देते समय  उठती लपटों पर रखदेना  ,सब धूँ धूँ  कर जल उठेगा।" 

"माँ मज़ाक में न लो। मेरी बात ध्यान से सुनो।" 

"तो मेरी बात भी ध्यान से सुन । मैं इनके बिना जीते जी तिल तिल नहीं जलना चाहती।" 

"माँ तुम कहना  क्या चाहती हो?" 

"मैंने तुझे तो पेट में नौ माह ही रखा है। मेरी कुछ पेंटिंग्स को तैयार होने में तो दो दो साल लग गए। उनको निहारती रहती ,उनके इर्दगिर्द चक्कर लगाती कि कब वे पूरी तरह से तैयार हों । मैं बिना सोचे समझे न किसी को दे सकती हूँ। और न पानी में बहा सकती हूँ। ये मेरी औलाद है औलाद ।तू हाड़ मास का होते हुए भी इतनी सी  बात नहीं समझता कि सृजन करने वाला संहारक कैसे बन सकता  है ।"

उसके अन्तर्मन की व्यथा नाक से टपटप बहने लगी जो उसके पल्लू में समा गई।










 

मंगलवार, 19 अप्रैल 2022

मंगलवार, 12 अप्रैल 2022

मेरी दो लघुकथाएं


 अप्रैल अंक 2022 में प्रकाशित

सुधा भार्गव  

 

   1-वात्सल्य की हिलोरें

सोहर गाई जा रही थी । सोहर गीत पीड़ा और  आनंद के खट्टे -मीठे अनुभवों से लबालब भरे हुये थे। जच्चा बनी वह बिस्तर पर लेटे प्रसव की पीड़ा को भुला मातृत्व के अनोखे आनंद  में डूबी हुई थी। बधाइयों का ताँता लगा हुआ था। बच्चे के पैदा होते ही घर में खुशियों की भरमार जो हो  गई थी। । अचानक घर से बाहर तालियों की थाप  पर बहुत से स्वर गूंज उठे। 'अम्मा तेरा बच्चा बना रहे। तेरे आँगन में फूल खिलें । हाय हाय कितनी देर  हो गई बालक कू तो दिखा दे । नहीं तो घर में ही घुस जाएँगे । फिर न कहियों हम ऐसे हैं ।' पुन

:वही तालियों की थाप। अंतिम वाक्य  सुनते ही जच्चा काँप उठी। समस्त ज़ोर लगाकर चिल्लाई -"इनको जो चाहिए दे दो। बच्चा तो अभी अभी सोया है।" 

"अइयो रामा तेरे कलेजे का टुकड़ा हमारा भी तो कुछ लगे है।ठप्प ठप्प … चट्ट चट्ट --कैसे छोड़ देंगे अपनी जात के को।" एक बोली  

"ला-- ला हमारी गोद में डाल दे।" दूसरी बोली। 

बच्चे को उठाए लड़खड़ाती जच्चा बाहर आई।  कातर स्वर में बोली-"न न अभी नहीं। कुछ दिन मेरी गोदी में खेलने दो। कितनी मुश्किल से गोद हरी हुई है । इसके बिना  मैं मर जाऊँगी। कैसा भी है मेरा खून है।" 

"माई  बड़ी -बड़ी  बात न कर । क्या तू इसके लिए अपने पूरे समाज से लड़ सकेगी ।"

 "हाँ हाँ क्यों नहीं!। आज तुम अपने अधिकारों की बात करती हो  तो इससे तो इसका अधिकार न छीनो।  माँ -बाप और घर से उसे अलग करके तुम्हें क्या मिलेगा!" 

"अरी प्रधाना तू क्यों चुप है। कुछ बोलतीं क्यों नहीं!  तू तो पढ़ी लिखी है । मेरी समझ में इसकी बात धिल्लाभर ना आ रही। "प्रधाना की साथिन ही हाथ नचाते बोली । 

 प्रधाना दूसरी दुनिया में ही खोई थी । ‘अपने से अलग करते समय माँ ने उसे कितना चूमा चाटा था । आँचल फैलाकर रुक्का बाई से दया की भीख मांगी थी। पर वह न पिघली तो न ही पिघली । माँ की पकड़ से खीचते हुए वह उसे दूर बहुत दूर ले  गई।’उसकी आँखों से दो आँसू चूँ पड़े। 

"अरे किस दुनिया में खो गई।" उसकी साथिन ने झझोड़ते हुए कहा। 

प्रधाना ने चौंक कर जच्चा की ओर देखा । वह एक माँ की तड़पन देख चुकी थी। एक और माँ को बिलखता देखने की शक्ति उसमें  नहीं थी। 

उसने एक पल गोद में लिए जच्चा को ऊपर से नीचे तक देखा।   फिर दृढ़ता से बोली-‘हम  यहाँ बच्चे को  आशीर्वाद देने आए हैं उसे लेने नहीं।’  


2-धन्ना सेठ

 

      “ आज पहला लॉक डाउन ख़तम होने  वाला था।पर उससे  पहले ही दूसरे  लॉक डाउन की घोषणा हो गई है।यह तो ३ मई तक चलेगा ।”

      “हाँ सिम्मी , पिछले महीने का पैसा तो बाई को दे दिया है ।उसने तो १९ तारीख  तक ही  काम किया था  पर  पप्पू के पापा तो इतने रहम दिल हैं कि क्या बताऊँ !बोले- पूरे माह का ही दे दो। सो भइया  10 दिन  का  ज्यादा ही उसे मिल गया ।लेकिन इस माह तो पूरे महीने काम पर बाई नहीं  आएगी सो उसे तनख्वाह देने की कोई तुक ही नहीं ।”

     “लेकिन बाई का तो कोई कसूर  नहीं ।चाहकर  भी न आ सकी ।”

    “भई मैं तो सब काम नियम -कायदे से  करती हूँ।”

     “शकीला ,कभी -कभी मानवीयता की खातिर नियम- कायदे ताक पर रखने  पड़ते हैं ।२-3 हजार देने से न तुझे कोई कमी होगी न घर भरेगा पर बाई के बच्चों का पेट भर जाएगा ।उनके चेहरे एक बारगी  खिल उठेंगे ।”

       “मैंने क्या उसके पूरे कुनबे  का ठेका ले रखा है!”शकीला चिढ़  सी गई। 

     “ऐसी ही बात समझ।  साल- साल  बाई हमारे काम करती है । एक दिन न आएं तो कितनी परेशानी हो जाती है । फिर उनकी  परेशानी  में हम काम क्यों न आएं ।यह तो फर्ज बनता है ।”

     “फर्ज तो तभी निभाया जाता  है जब  किसी की औकात हो ।तुम्हारा क्या! तुम तो सिठानी हो--- दो-दो होटल चलते  हैं ।”

    “ लोकडाउन में होटल तो बंद हैं।  पर दो कर्मचारियों के रहने और खाने-पीने  की व्यवस्था होटल  में  कर दी है। वक्त -बेवक्त  शायद वे काम आ जाएँ ।”

    “तो हुआ क्या फायदा उनसे--- तुम्हारे घर तो खाना बनाकर ला नहीं सकते ।बाहर निकलने पर भी तो पाबंदी है।” 

     “फायदे की न पूछ --इतना फायदा हो रहा है--- इतनी संतुष्टि मिल रही है कि कह नहीं सकती ! प्रवासी मजदूरों के तो खाने के लाले ही पड़  गए हैं ।नौकरी जो छूट गई !उनके कष्टों को सोच-सोच कर तो मेरे रोयें खड़े हो जाते हैं ।मेरे  दोनों कर्मचारी १०० के करीब मजदूरों को  दोनों वक्त  का खाना बनाकर खिलाते  हैं । सोच तो कितनी दुआएं देते होंगे ।”

     “भगवान् जाने दुआएं देते होंगे भी! पर  यह तो वही बात हुई आ बैल तू मुझे  मार । पैसा तो आपदा में सोच-समझ कर ही खर्च करना होगा। सुनते हैं कोरोना  दानव से निबटने के लिए सरकार को बड़ी -बड़ी फैक्ट्रियों के मालिकों से मदद चाहिए । मालिक भी अपने कर्मचारियों की जेब में ही सेंध लगाएंगे।  कहने को तो  पप्पू के पापा  बड़ी सी फैक्टरी के मैनेजर हैं ,पर उनकी  जेब  पर भी न  जाने कब छापा पड़  जाये ।ऐसे में तो बाई की तनख्वाह देने का सवाल ही नहीं उठता ।तेरा क्या तू तो धन्ना सेठ है ।तुझे ही दान-पुण्य का काम मुबारक हो । 

     “दान पुण्य के लिए धन्ना सेठ होना जरूरी नहीं शकीला --इसका सम्बन्ध तो दिल की अमीरी से है ।”

समाप्त 





 



 





शनिवार, 5 फ़रवरी 2022

समीक्षा


"टकराती रेत" लघुकथा संग्रह की समीक्षा 

                     डॉ मंजू रानी गुप्ता 

 मैं डाॅ• मंजु रानी गुप्ता की बहुत शुक्रगुजार हूँ। अभी हाल में ही उन्होंने मेरे लघुकथा संग्रह -टकराती रेत 'की समीक्षा लिखकर भेजी है। जो मेरे लिए एक आश्चर्य से कम न था। मैंने उनको यह संग्रह भेजा भी न था। पर उन्होंने मेरे ब्लॉग तूलिकासदन से इस संग्रह की लघुकथाओं को बड़ी  मेहनत से एकत्र किया व उनका अवलोकन कर अति  बारीकी से विश्लेषण  किया है । उनका बार बार - धन्यवाद । 

मंजु जी ने 1971 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से एम• ए• की परीक्षा उत्तीर्ण कर,1975 में " प्रेमचंद कथा साहित्य में सामाजिक जीवन " शोधग्रंथ पर पी•एच• डी• की उपाधि प्राप्त की ।रानी बिड़ला गर्ल्स कॉलेज क़लक़त्ते में एसोसियेट प्रोफ़ेसर तथा विभागाध्यक्ष के पद पर कार्यरत रहीं ।
आकाशवाणी कोलकाता तथा दूरदर्शन पर आपके कार्यक्रमों का प्रसारण होता रहा है।विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कहानी,लेख एवं कविताओं का भी भरपूर प्रकाशन होता रहता है। आजकल महिलाओं की संस्था "साहित्यिकी" से संबद्ध हैं। कुछ वर्षों तक" साहित्यिकी " पत्रिका का संपादन कार्य वहन किया। संप्रति- वे साहित्य लेखन से जुड़ी हुई हैं ।


" टकराती रेत"
श्रीमती सुधा भार्गव
समीक्षा- मंजु रानी गुप्ता


" टकराती रेत " श्रीमती सुधा भार्गव का एक ऐसा लघु कथा संग्रह है, जो समकालीन होते हुए भी आधुनिक है ।यहाँ स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि समकालीन शब्द कालबोधक है जब कि आधुनिक शब्द मूल्यबोधक भी।कथाएँ स्वतःस्फूर्त हैं और इनका उद्देश्य यथार्थ का उद्घाटन कर जनचेतना को जगाना है ।कथाएँ गहरी संवेदना व व्यापक सहानुभूति से युक्त हैं तथा लेखिका की निरीक्षण शक्ति का परिचय देती हैं ।संग्रह की प्रथम कथा " कीमत " विदेश में रहनेवाले बेटे की संवेदनहीनता को अभिव्यक्ति देती है, जो प्यार से भेजी गई मिठाई की कीमत नहीं समझता ।
कतिपय कथाएँ उन प्रवासी परिवारों की मानसिकता को व्यक्त करती हैं, जो विदेश में रहकर भी अपनी संस्कृति और सभ्यता से जुड़े हुए हैं।
समकालीन रचनाकार का कर्म है कि वह सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक संकट की स्थिति को दर्शाए और व्यक्ति को इनसे लड़ने की हिम्मत दे ।'बंद ताले कथा, विवाह हेतु आए बारातियों की मानसिकता का यथार्थ चित्रण करते हुए, उनके दिमाग के बंद ताले खोलती है ।' दूध का कर्ज ' कथा लिंग भेद करनेवालों पर प्रश्न उठाती है ।'सन्नाटे की रेखाएं ' मृत्यु के उपरांत किए गए कर्मकांडों पर प्रहार करती है।पति की मृत्यु के बाद पत्नी बेहाल है किन्तु उसकी सूनी मांग की ओर किसी का ध्यान नहीं, परिजन तो तेरहवीं के निमंत्रण में अधिक रुचि रखते हैं।'बंदर का तमाशा ' की निर्धन युवती उन गरीबों का प्रतिनिधित्व करती है जो बच्चों तक का तमाशा बनाने पर वाध्य हैं ।नंग-धड़ंग बालक बंदर की भूमिका में नाचता है और विडंबना यह है कि आम जनता नृत्य का आनंद उठाती है। कथा मौजूदा व्यवस्था की व्यंग्यपूर्ण आलोचना करती है। 'कमाऊ पूत 'का बाँके सब्जी मंडी में सब्जी बेचने जाता है, साथ ही माँ की दी हुई उन पानी की बोतलों को साथ ले जाता है जिन्हें माँ ने जरूरतमंद को जल पिलाने के लिए दिया है किन्तु वह उन बोतलों को बेचकर पैसे कमाता है। यह नई पौध है जो जीविका के लिए पानी भी बेच सकती है, किन्तु बाँके निर्धन है उसके लिए थोड़े पैसे भी बहुत मायने रखते हैं।' होलिका का मंदिर 'में मानव की नैतिकता पर प्रश्न उठाया गया है। धर्म के नाम पर मंदिरों में धन- दौलत चढ़ाए जाते हैं लेकिन जरूरतमंद की मदद करने से लोग कतराते हैं ।
कथाएँ संक्षिप्त और सारगर्भित हैं।लेखिका की सकारात्मक दृष्टि चेतना को ऊर्जा प्रदान करती है।'वह आएगा ' 'महोत्सव ' 'असली हिन्दुस्तान ' ऐसी ही कथाएँ हैं।' ' सूरज निकला 'की दलित माँ बेटे के निराश हृदय में आशा की ज्योति जलाते हुए कहती है कि 'पैंसठ वर्षों बाद सूरज तो निकला।हाँ इसकी रोशनी फैलने में समय जरूर लगेगा।'
आज की नई पीढ़ी अपनों से दूर होती जा रही है 'ससुर जी ' और ' दर्द का संगम' जैसी कथाएँ इसी भाव पर आधारित हैं ।प्रायः युवतियाँ धन- दौलत के लोभ में पड़ कर ससुराल में परिजनों को अपनाने में असमर्थ रहती हैं।'दुनियादारी'कथा सकारात्मक ऊर्जा से भरपूर्ण है, यहाँ घर- घर खाना बनाने वाली निर्धन स्त्री अपने अथक परिश्रम से परिजनों के लिए घर बनवाने का स्वप्न देखती है किसी प्रकार का स्वार्थ नहीं,प्यार का प्रकाश है जो निरंतर फैल रहा है।
कथाएँ परिवार और समाज की समस्याओं को उकेरतीं हैं।ये बचपन ,यौवन और वृद्धावस्था की आम समस्याओं से जुड़ी हुई हैं, तथा पाठकों की चेतना को झकझोरती हैं।लेखिका सहज और बोधगम्य भाषा- शैली में अपना कथ्य पाठकों तक पहुँचाती हैं ।
कुल मिलाकर लघु कथाएँ मानवीय सत्य तथा यथार्थ से संम्पृक्त हैं ।
समाप्त 


लघुकथा


संरचना -13,2020 वार्षिकी  में मेरी लघुकथा  'पालना 'प्रकाशित हुई है। इसके संपादक वरिष्ठ लघुकथाकार कमल चोपड़ा जी हैं। उनका बहुत बहुत धन्यवाद 

 लघुकथा -पालना
सुधा भार्गव

        पहली किलकारी सुनने से पहले ही अविनाश ने बच्चे का कमरा तो तैयार करवा दिया था पर किसी कारण वश पालना नहीं ख़रीद पाया । बच्चे को माँ के साथ सोते सवा महीना हो चुका था ।अब वह पालना ख़रीदने को बेचैन हो उठा । बच्चे को अलग सुलाने का वह पक्षपाती था ताकि उसका ठीक से विकास हो सके और स्वस्थ रहे ।
उसने एमोज़ोन पर २-३ पालने पसंद किए । पत्नी को दिखाते हुए बोला -
      “इनमें से कोई एक पसंद कर लो।”
     “बच्चे को अभी अलग सुलाने की ज़रूरत नहीं । मैं इसके बिना नहीं सो सकती ।”उसने रोषभरी आँखों से देखा।
      “फिर उसको अपने कमरे में सोने की आदत कैसे पड़ेगी ?”
      “जब समय आएगा आदत भी पड़ जाएगी ।”रुखाई से बोलकर बच्चे की तरफ़ करवट ले ली।
दाल न गलने पर अविनाश झुकता सा बोला -”ठीक है कुछ दिन और सही पर पालना तो पसंद कर दो और हाँ यह भी बता दो उसका तकिया कैसा होना चाहिए ?”
    “मैं अक्सर थक कर माँ की गोद में सो ज़ाया करती ।बिस्तर पर नींद आती ही नहीं थी। माँ तो बैठे बैठे ही न जाने कब कब में झपकी ले लेती। पर उस समय भी चेतन रहती थी। जिधर भी मैं सिर घुमाती ,माँ उसीके अनुसार घुटनों को हिलाकर गड्ढा बना देती और मेरा सर आराम से उस पर टिका रहता।बस तकिया ऐसा ही होना चाहिए ।जरा भी कुनकुनाती तो माँ अपना एक घुटना हिलाने लगती, मुझे लगता मैं पालने में झोटे खा रही हूँ ।फिर सो जाती। एकदम ऐसा ही तकिये वाला पालना खरीद लाओ। हाँ एक चादर भी तो लानी होगी। ।"
     "चादर कैसी हो --वह भी बता दो।"
     "मैं तो माँ की धोती से लिपट कर ही सो जाया करती थी । उसमें उसकी खुशबू जो आती थी ।" मुंह पर मीठी सी हंसी लाते हुए न जाने वह कहाँ खो गई ।
अविनाश पहले तो असमंजस में था फिर एकाएक हंस पड़ा और चुटकी लेते हुए पूछ ही लिया -
    “पालने में कोई म्यूज़िकल टॉय तो लगाना होगा । कैसा खिलौना लाऊँ?
    “ खिलौना भी ऐसा हो जिसमें से माँ की लोरी सा संगीत सुनाई दे और मेरा चुनमुन झट से सो जाए ।”
अविनाश को अब अपनी पत्नी की बातों में आनंद आने लगा था जिसके तार बेपनाह मोहब्बत से जुड़े हुए थे। उसने एक प्रश्न और दाग दिया
    “अच्छा मैडम ,पालने के ऊपर जाली वाली एक छतरी भी तो लगानी जरूरी है जो हमारे बच्चे को मक्खी -मच्छर से बचाये।”
    “हूँ--- छतरी तो माँ के पल्लू की तरह हो तो ज्यादा अच्छा है जो मक्खी- मच्छर से ही नहीं उसे सर्दी-गरमी और लोगों की काली नजर से भी बचाये।"
     अविनाश ने भरपूर निगाहों से पत्नी को निहारा । फिर अपने हाथ में उसका हाथ लेकर बोला--”ऐसा पालना तो तुम्हारे पास पहले से ही है !"
     "मेरे पास ?" विस्मय से उसने देखा।
    “हाँ हाँ तुम्हारी गोदी! गोदी क्या पालने से कम है जिस पर हमेशा तुम्हारी ममताभरी बाहों का चंदोबा तना रहता है। !”
     पत्नी के सूखे होंठ प्रेममयी बारिश की बूँदों से तरल हो उठे ।
     उसने फुर्ती से अपने चुनमुन को कलेजे से लगा लिया । ममता की महक से सोते हुए नवजात शिशु के गुलाबी होठों पर मुस्कान थिरक उठी ।
समाप्त