अंकुर
किटकू का नियम था कि शाम को जैसे ही फुटबॉल खेलकर लौटता उसके जूते- मौज़े हवा में कलाबाज़ियाँ करते दिखाई देते और फुट बॉल लुढ़कती हुई नाली में दम तोड़ती सी लगती ।लाख बार समझाया होगा कि घर को युद्ध का मैदान न बनाया कर पर वह ठहरा पूरा का पूरा चिकना घड़ा। लेकिन उसमें एक अच्छी बात थी कि वह कितना भी थका हो पर जल्दी ही अपनी प्यारी दादी के सामने पूरे दिन का चिट्ठा खोलकर बैठ जाता। आज भी कुछ ऐसा ही हुआ। पसीने से लथपथ हाँफता हुआ आया। ।जूते मोज़े और फुट बॉल से छुटकारा पा चिल्लाया -“ ऐ गोपी जरा ठंडा -ठंडा पानी तो दे जा।”
बेटा उस गरीब के पैर में मोच आ गई है ,तू ही बढ़कर ले ले।”
“उफ --माँ --माँ कहाँ हो ?मैं बहुत थक गया हूँ ,मुझे पानी दे जाओ।”
माँ सारे काम छोड़ लाडले की आवाज सुन पानी का गिलास लेकर दौड़ी आई। गला तर कर किटकू का न्यूज चैनल शुरू-“दादी माँ --दादी माँ जानती हो आज मास्टर जी ने क्या कहा ?”
चश्में से दो आँखें झाँकीं जिनमें ढेर सा कौतूहल भरा था।
“वे कह रहे थे देश को आत्मनिर्भर बना ना हैं।”
“हूँ पहले बच्चों को तो आत्मनिर्भर बना लें।” दादी बड़बड़ाईं।
“क्या बोली दादी?”
“अरे क्या बोलूँ !यही बोलूँ कि बच्चे तो फली तक न फोड़ें । जो अपना काम न कर सके वो देश के लिए क्या करेगा।”
किटकू खामोश सा जमीन देखता रहा । फिर उसने अपने जूते- मोजे उठाए और करीने से शू हाउस में रख दिये।
बंजर भूमि पर उगते पौधे को देख दादी चौंक गई। उसकी आशा पौधे की परिक्रमा करने लगीं।
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