शुक्रवार, 3 मार्च 2017

अपने -अपने क्षितिज में प्रकाशित

मेरी चार लघुकथाएँ 


1-एक छुअन

उसे बुखार ने जकड़ लिया था और एक बार जकड़ा तो ऐसा जकड़ा कि वह उसकी गिरफ्त से छूट ही नहीं पाया। दूसरों के  चार काम करने वाला अब अपना एक काम भी नहीं कर पा रहा था। पहले उसे एक सँभालता था ,अब उसे चार-चार संभालते हैं । एकांत क्षणों में वह उदास आँखों से शून्य में निहारा करता।
उस दिन पत्नी उसका सिर सहला रही थी,साथ-साथ वर्षों बिताए दाम्पत्य जीवन के अनगिनत  आत्मीय –अनुराग भरे स्वरों की खनखनाहट दोनों ही सुन रहे थे। उसने आँखें खोलीं और नजरें पत्नी पर जमा दी जो हटने का नाम ही नहीं लेती थी। पत्नी कुछ देर तो देखती रही पर जल्दी हड़बड़ा गई –इतनी देर से मुझे देखे जा रहे हैं ,कहीं ऐसा तो नहीं कि अपनी याददाश्त खो बैठे हों और मुझे पहचानने की कोशिश कर रहे हों।
बेचैनी से उसे झँझोड़ बैठी-क्यों जी क्या बात है?
-तुमको बहुत—काम---।घुटन भरी आवाज। 
-अरे तो क्या हुआ। पहले आप भाग -भाग कर कितना काम करते थे। मुझे तो कुछ करने ही नहीं देते थे। अपनी सारी परेशानियाँ आपसे कहकर बादल की तरह हल्की हो जाती थी  और आप मुसकरा कर कहते-ओह!चिंता न करो। खुश रहो। अब आपको खुश रखने की मेरी बारी है।    उसकी आँखों से मजबूरी के दो आँसू ढुलक पड़े।
-अरे यह क्या!पत्नी ने अपने आँचल से ढेर सा प्यार उड़ेलते हुए आँसू पोंछ डाले।
उसने अपना अशक्त हाथ धीरे से आगे बढ़ाया। लपककर पत्नी ने उसे थाम लिया। उसे लगा  - इस एक छुअन से उसके अंग अंग में अनगिनत शक्ति पुंजों का स्फुटन होने लगा है जिनसे सशक्त होकर वह यमराज से भी टकरा सकता है।

2-कटौती

अजी सुन रहे हो ,आज मेरे तबीयत ठीक नहीं ।ककलू को स्कूल लेने न जा पाऊँगी। आप दोपहर दो बजे लेने पहुँच जाना। घर आकर गरम गरम खाना भी खा लेना।
–जो हुकुम मेरी सरकार। गंगाधर हँसते हुए अपनी कपड़े की दुकान की ओर चल दिए। उन्हें ज़्यादातर मसनद  के सहारे आलती पालती मारकर बैठना पड़ता था इसलिए धोती कुर्ता पहनने में उन्हें सुविधा रहती थी। सारे समय ग्राहकों की भीड़ में डूबे रहे मगर दो का घंटा सुनाई पड़ते ही उठ बैठे और जल्दी जल्दी पैरों में चप्पल फंसा स्कूल चल दिए। सूर्य  अपने पूरे ताप पर था। वहाँ पहुँचते पहुँचते पसीने से नहा गए । बेटे को देखते ही उनके चेहरे पर एक विजयी सी मुस्कान फैल गई –आह मेरा बेटा इंगलिश स्कूल में पढ़कर मुझ से चार कदम आगे निकलेगा। मगर बाप को देख बेटे ने नाक भौं सकोड़ ली और कुछ कदमों की दूरी बनाए चुपचाप  चल दिया। 
घर पहुँचकर बस्ता एक ओर पटका और भुनभुना उठा-माँ मुझे लेने तुम क्यों नहीं आई।
-क्यों,क्या हुआ?
-पापा  धोती कुर्ता पहनकर वहाँ भी आ गए और चप्पल,एक चप्पल का तो तला ही गायब है।कदम भी ठीक नहीं पड़ रहे थे। मुझे तो पापा को पापा कहते हुए भी शर्म आ रही थी। सबके पापा-बाबा तो पेंट कमीज और चिकने चिकने जूते पहनकर आते हैं और मेरे पापा ---ऊ ! 
-मैंने तो कितनी बार कहा है कि जगह देखकर कपड़े पहनकर जाया करो। पर सुने तब ना।
-भागवान। तुम लोगों को तो किसी बात की कमी नहीं होने देता । अच्छा खाना,अच्छा पहनना,बेटे को नंबर-1 शिक्षा, सभी कुछ तो मिल रहा है। तुम  अपने अनुसार जीयो और मुझे अपने अनुसार जीने दो। 
-आपकी बात एक तरह से ठीक ही है पर हम जब बनठन कर घर से  बाहर निकलते हैं तो हमारी भी तो इच्छा होती है आप भी फैशन के अनुसार कपड़े जूते पहन कर निकलो। जब आप हमारे ऊपर इतना खर्च कर सकते हो तो अपने ऊपर क्यों नहीं।
-तुम को खुश देखकर मुझे खुशी मिलती है। तुम्हारे चेहरों की मुस्कान  बरकरार रखने के लिए ही तो दिन रात मेहनत करता हूँ। लेकिन अपने ऊपर भी उतना खर्चा करने से तो बैंक बैलेंस ही गड़बड़ा जाएगा। अब कहीं -न -कहीं तो कटौती करनी ही पड़ेगी। 

3-दुनियादारी

पिछले माह से ही मैंने एक खाना बनाने वाली रक्खी है । मुश्किल से होगी 22-23 साल की । सुबह साढ़े पाँच बजे  उठ कर 6 बजे काम को निकल पड़ती है और रात मेँ 9 बजे घर मेँ  घुसती है। करीब सात घरों में भोजन ही बनाती है। उसकी आँखें देखने से मुझे लगता है  मानों वे अशक्त व सूनी सूनी है।एक दिन मैंने पूछ लिया-आँखों से तू बड़ी कमजोर लगती है।बीमार है क्या?
 -हाँ दीदी मेरे नींद नहीं पूरी होती।सोते- सोते 12 बज जाते हैं। मुझे अकसर लो ब्लडप्रेशर हो जाता है।
-जल्दी सोया कर । नींद पूरी न होने पर बहुत गड़बड़ी हो जाती है। तेरी तो शादी भी नहीं हुई है। फिर घर में काम, ऐसा क्या काम!
-मेरी विधवा बीमार दीदी मेरे साथ है। हम सात भाई बहन हैं । मैं सबसे छोटी पर बड़े होने की ज़िम्मेदारी मैं ही निभाती हूँ।
-यह तो बड़ी अच्छी बात है पर अपने लिए भी कुछ पैसा बचाकर रखती हैं या नहीं।
-मेरी  सारी  कमाई मेरे परिवार के नाम!भाई को पढ़ाया, बहनों की शादी मेँ मदद की और आजकल अपना सपना पूरा करने मेँ लगी हुई हूँ।
-चल अपने लिए तूने कुछ तो सोचा । मैं तो इसी उधेद्बुन मेँ थी कि बुरे समय के लिए तूने कुछ नहीं बचाया तो न जाने कोई तेरी मदद भी करेगा। जरा मैं भी तो सुनूं तेरा सपना।
- मेरा एक सपना था कि माँ और बापू को घर  बनवाकर दूँगी।वह करीब करीब पूरा होने को आ रहा है। पिछले साल उसके लिए बैंक से कर्ज लिया। वह मैं ही चुकाऊंगी। कुछ साल की ही तो बात है। हठात उसकी बुझी -बुझी आँखें चमक उठीं जो उसकी अंतरंग खुशी का बयान कर रही थीं।
-पर उस मकान मेँ तूने अपना नाम पड़वाया है या नहीं!
- पड़वाया है पर मुझे इससे कोई लेना देना नहीं। वह पूरी तरह बापू का है। वे जो चाहे इसका करें। मेरे लिए मेरी  ज़िंदगी पड़ी है और घना कमा लूँगी। मेरे चारों तरफ उज्जवल सी रोशनी बिखेर मुस्कुराने लगी।
मैं पढ़ी लिखी उसे दुनियादारी ही सिखाती रही पर उस अनपढ़ ने तो मुझे वह दुनियादारी बताई जो बड़ी बड़ी पोथियों मेँ नहीं मिलती।
समाप्त 
सुधा भार्गव 
9731552847 

7 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (05-03-2017) को
    "खिलते हैं फूल रेगिस्तान में" (चर्चा अंक-2602)
    पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक

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