मंगलवार, 27 अगस्त 2013

यह लघुकथा दलित समाज पर आधारित है जो उम्मीद की किरणों के सहारे जिंदा हैं। क्या ये किरणें प्रकाश पुंज बन पाएँगी ?



सूरज निकला तो/सुधा भार्गव 


वह दलित थी ,उस पर भी बेचारी औरत जात !फिर तो दुगुन दलित । आदमी घर बैठे उसकी छाती पर मूंग दलता और बाहर -----रात के सन्नाटे मेँ उसकी चीखें हवा मेँ  घुल जातीं । सुनने वालों को सुकून ही मिलता ,दलित जो ठ्हरी!
पर माँ भी तो थी वह ,बस रख दिया तन -मन  गिरवी । एक ही आस , बड़ा बेटा पढ़ जाए तो दूसरों को संभाल लेगा।   शायद बुढ़ापा भी  सुधर जाए । धन के नाम पर एक झोंपड़ी जिसे गिराने की धमकियों ने नींद हराम कर दी थी । वर्षों पहले पूर्वजों के लगाए पेड़ों को ठेकेदार ने काट गिराए और बाकी पतिदेव के नशे की लत ने बेच खाये ।

आठवी पास  बेटा उस दिन चहकते हुये आया । बोला -माँ माँ देख तो इस अखबार मेँ  --। सरकार हमारा कितना ध्यान रख रही है । अब से हमारी जमीन ,हमारे पेड़ कोई नहीं छीनेगा । हम जंगल के राजा  थे और रहेंगे ।
-चुप भी रह । ये बातें पढ़ने मेँ ,सुनने मेँ  ही अच्छी लगती हैं । गुमराह करने की अच्छी साजिश है।  हवाई बातों को कागज पर उतारने मेँ भी काफी समय लगता है ।
-ठीक है ,कड़वे घूँट पीने की तो आदत है । अब सब्र के घूँट पीकर पेट भर लेंगे ।
-इतने बरस हो गए आजादी को ,किसी ने हमारी सुध ली ?
-लेकिन माँ 65 वर्षों के बाद हमारा सूरज तो  निकला । इसकी रोशनी फैलने मेँ समय तो लगेगा ।

अपने बेटे के चेहरे पर खिली उम्मीदों की पंखुड़ियों को वह मुरझाता हुआ नहीं देखना चाहती थी इसलिए  एक माँ जबर्दस्ती अपने होठों पर बरखा लाने की कोशिश करने लगी । 
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प्रवासी दुनिया में प्रकाशित 



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