रविवार, 17 मार्च 2013

मेरी लघुकथा



हस्ताक्षर /सुधा भार्गव

संसद में यह अधिनियम पास हो चुका था कि बाप –दादा की संपत्ति में बेटियों का भी हक है । यदि वे चाहें तो अपने कानूनी हक की लड़ाई लड़ सकती हैं । भाई बेचारों के बुरे दिन आ गए । यह हिस्सा बांटा नियम कहाँ से आन टपका ! कुछ सहम गए ,कुछ रहम खा गए ,कुछ घपलेबाजी कर गए ,कुछ चाल चल गए । माँ –बाप मुसीबत में फंस गए । बेटी को दें तो ---बेटे से दुश्मनी ,न दें तो उसके प्रति अन्याय ! जिनके माँ –बाप ऊपर चले गए ,उनके लड़कों ने संपत्ति  की कमान सँभाली । निशाना ऐसा लगाया कि माल अपना ही अपना ।

सोबती की शादी को दस वर्ष हो गए थे । वह हर समय अपने भाइयों के नाम की माला जपती रहती –मेरे भाई महान हैं । उनके खिलाफ कुछ नहीं सुन सकती । लाखों में एक हैं वे । राखी के अवसर पर  दोनों भाइयों की कलाई पर सोबती  स्नेह के धागे बांधती । वे भी भागे चले आते । उत्सव की परिणति महोत्सव  में हो जाती ।

इस साल भी तीनों भाई –बहन एकत्र हुये । छोटा भाई कुछ विचलित सा था । ठीक राखी बांधने से पूर्व उसने एक प्रपत्र बहन के सामने बढ़ा दिया –दीदी ,इसपर हस्ताक्षर कर दो ।
हस्ताक्षर करने से पूर्व उसने पढ़ना उचित समझा । लिखा था –मैं इच्छा से पिता की संपत्ति में से अपना हक छोड़ रही हूँ ।

सोबती एक हाथ में प्रपत्र अवश्य पकड़े हुये थी परंतु हृदय में उठती अनुराग की अनगिनत फुआरों में भीगी सोच रही थी -----
–बचपन से ही मैं अपने हिस्से की मिठाई इन भाइयों के लिए रख देती थी और ये शैतान अपनी मिठाई भी खा जाते और मेरी  भी । उनको खुश होता देख मेरा खून तो दुगुना हो जाता था । आज ये बड़े हो गए तो क्या हुआ ,रहेंगे तो मुझसे छोटे ही !यदि ये मेरा संपत्ति का अधिकार लेना चाहते हैं ,तो इनकी मुस्कुराहटों की खातिर प्रपत्र पर हस्ताक्षर कर दूँगी । मुझे तो इनको खुश देखने की आदत है ---।

सोबती ने बारी –बारी से दोनों भाइयों की ओर देखा और मुस्कराकर प्रपत्र पर हस्ताक्षर कर दिये ।

प्रकाशित -संकलन  लघुकथाएं जीवन मूल्यों की (फरवरी 2013 में प्रकाशित)
सम्पादन -सुकेश साहनी ,रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

                                                                             

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