गुरुवार, 15 नवंबर 2012

लघुकथा



महोत्सव /सुधा भार्गव 






बंतो का दैनिक नियम था कि  शाम होते ही अपनी पड़ोसिन सत्या  से मिलने निकल पड़ती  । आदत के मुताबिक़ वह उस दिन भी उसके घर जा पहुंची ।जिसे रसोई में घुसने से भी चिढ थी   उसे वहां आराम से काम करते देख  बंतो  पलक झपकाने लगी दिवाली के पकवान  बनने  की सी महक  हवा में तिर रही थी जिसमें बंतो डूब सी गई ।

-आज तो तेरी रसोई से घी की बड़ी खुशबू आ रही है ।क्या आज से ही दिवाली मनानी  शुरू कर दी  ।
-ऐसा ही समझ ले बंतो ।
-लो कर लो बात !कैसे समझ  लूँ ।दिवाली  का तो अभी हफ्ता भर है ।कोई सुनेगा या देखेगा तो यही समझेगा -तू पागल हो गई है ।
-समझने दे ।मैं चिंता नहीं करती ।दो माह बाद भोपाल से  मेरा बेटा दो दिन को आया है । उसका आना मेरे लिए महोत्सव  से कम नहीं ।समझ नहीं आता उसके लिए क्या -क्या बनाऊँ ।कभी सोचती हूँ यह बनाऊँ ,कभी वह बनाऊँ ।
-तू  तो ऐसे कह रही है जैसे उसकी बीबी खाने को न देती हो ।

कमरे में बैठे सत्या  के बेटे ने अपनी   माँ और पड़ोसिन काकी की बातें  सुन ली थी ।चूंकि बर्तालाप का विषय वह  स्वयं   था इसलिए चुप न रहा सका । काकी के मान का ध्यान रखते हुए कमरे से बाहर आकर  बड़ी सरसता से  बोला ---
--काकी,मेरी बीबी ने तो खिला -खिलाकर मुझे  सेठ बना दिया है पर जीवन  में सबका स्थान अलग -अलग होता  है ।कोई  किसी की जगह नहीं ले सकता, फिर हाथों का स्वाद भी तो अलग होता है ।
-माफ करना बचुआ ।हम तुम्हारी बात से राजी नहीं ।नून तेल घी एकसा ,मसाले एक से ।फिर स्वाद अलग अलग कैसे ?
-काकी ,स्वाद अलग -अलग ही  होता है ।किसी के बने खाने में प्यार का स्वाद होता है तो किसी में ममता का  ।किसी में कर्तव्य का स्वाद होता है तो किसी में  बेगार टालने का ।
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