सोमवार, 29 अगस्त 2011

लघुकथा



सिसकती साँसें  /सुधा भार्गव




--तीन दिन से घर बैठा है ,स्कूल क्यों नहीं जाता। मास्टरनी ने कल भी बुलाबा भेजा था और आज भी।अरे इतनी अच्छी मास्टरनी तो ढूँढे से न मिले।
--हूं ---।
--क्या हूं --हूं किये जारहा है।
--मास्टरनी  इतनी अच्छी है तो एक काम कर अम्मा, तू चली जा।
--अरे करम जले !चली जाती-----चली जाती अगर मेरे समय मुझे स्कूल में घुसने देते ---अन्दर का दर्द झर -झर कर बहने लगा।


--तुझे कुछ पता तो है नहीं! स्कूल में पढ़ाई ही नहीं होती और भी बहुत से काम करने पड़े है ।बस रट लगा रखी  है --स्कूल जा --स्कूल जा ।
--एक आध काम करना पड़  गया तो क्या तू छोटा पड़ गया ।
-छोटा तो हूं ही और क्या छोटा होऊंगा।रोज स्कूल में पखाना साफ करना पड़े है । मेरे दोस्त झाडू लगावे हैं ।
--सफाई वालों को क्या मौत आ गई !
-मौत क्यों आने लगी --मेरे जैसे जिन्दा तो हैं। गोलू स्कूल में पहले नंबर आया --जाने है क्यों आया
हरदिन मास्टरनी के घर की सफाई करे है।


गेंदा की माँ चोट खाई नागिन की तरह पल में मास्टरनीजी के आगे फ़न उठायें खड़ी हो गई ----
-अरे गेंदा नहीं आया --।
-आना तो चाहता था मगर झाडू -बाड़ू उसके बसका रोग  नहीं।

-क्या कहा--- --!झाडू लगाना.मैला उठाना तो चमेलिया तेरा खानदानी पेशा है ।अपनी जड़ों से कटकर कोई खड़ा रह सकता है ?
-ऐ मास्टरनी जी ,  हम तो केवल मैला उठावे हैं।नहा धोकर सुथरे के सुथरे।लेकिन तुम जैसे पढ़े -लिखे अच्छाई की ओट  में हमेशा मैले ही रहते हो।


मिजाज  के गर्म मौसम से लपटें निकल रही थीं लेकिन  सामने का  लिपा पुता मुखौटा ज्यों की त्यों निर्लेप -नारायण की तरह बैठा था  |चेहरे पर कुटिल मुस्कान थी ,आँखें कह रही थीं ----छोटे हो झुक कर चलना ही होगा। हममें अब भी इतनी शक्ति है कि अपने मिजाज की लपटों में तुम  खुद झुलस जाओगे।


चमेलिया चुप थी मगर उसकी मुट्ठियाँ भिच गई थीं ----|

* * * * * * *

17 टिप्‍पणियां:

  1. मानवता का संदेश देती सार्थक लघु कथा...सुन्दर..

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  2. वाह कबीर जी के दोहे के साथ लघुकथा की समाप्ति ...बहुत अच्छी लगी .....सवेदना से भरपूर ये छोटी सी कहानी

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  3. बहुत सार्थक सन्देश देती अच्छी लघुकथा

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  4. सुधा जी
    सादर नमस्कार
    आपकी लघु कथा ने समाज में व्याप्त जाती प्रथा पर कड़ा व्यंग्य किया है .आपके ब्लॉग का परिचय मैंने ''ये ब्लॉग अच्छा लगा'' पर प्रस्तुत किया है आप नेचे दिए लिंक पर आये व् अपनी प्रतिक्रिया प्रदान कर हमारा उत्साहवर्धन करने की अनुकम्पा करें .
    आभार
    YE BLOG ACHCHHA LAGA

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  5. सुधा जी ,
    ये सोच जो हमारे पुराने समय से चली आ रही है इसे बदलने में अभी शायद बहुत समय लगेगा.बहुत सुन्दर लिखती हैं आप..ये ब्लॉग अच्छा लगा से यहाँ आना हुआ.और आना सार्थक हो गया.
    न छोड़ते हैं साथ कभी सच्चे मददगार

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  6. अच्छे विषय पर आपने सधी हुई लघुकथा लिखी है। बधाई।

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  7. सुधा जी, अच्‍छी लघुकथा है। पर अपने चरम पर पहुंचकर थोड़ा लड़खड़ा गई है। तीसरे पैरा में चमेलिया जो आपने कहलवाया है,उस पर और काम करने की जरूरत है।
    जैसे अगर संवाद यह हो -

    ऐ मास्‍टरनी जी हमारा खानदानी पेशा तो केवल मैला उठाना है। नहा धोकर सुथरे के सुथरे। लेकिन तुम जैसे पढ़े लिखों का खानदानी पेशा तो शरीर साफ और मन में मैला रखना ही है।

    इसी तरह आखिरी पैरा भी लघुकथा की धार को थोड़ा कम करता है।

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  8. समाज का असली चेहरा दिख रहा है इस लघु कथा में। अंत में हिम्मत बंधाती पंक्तियों के लिए आभार।

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  9. अच्छे विषय पर लघुकथा लिखी है। बधाई।

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  10. बहुत कुछ सोचने पर विवश करता हुआ प्रसंग .....

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  11. झकझोर गया क्या कहूँ आगे...

    व्यवस्था और मानसिकता पर ऐसा प्रहार किया है न आपने इस कथा के माध्यम से कि क्या कहूँ...

    बहुत ही सुन्दर कथा...

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  12. सार्थक सन्देशयुक्त अच्छी लघुकथा ...

    Welcome on my blog-
    http://samkalinkathayatra.blogspot.com/

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