शुक्रवार, 20 मई 2011

लघुकथा - ----धाम


बैकुंठ -धाम/सुधा भार्गव 

 

पति की  मृत्यु के बाद उठावनी के दिन  श्यामा ने सलाह दी --तेरहवीं साधारण  तरीके से की जाये और शोक समाप्ति भी जल्दी हो ताकि बच्चे अपने अपने काम पर जा सकें । उनको शहर से  बाहर जाना है । यादें और इंसानी मोहब्बत  तो दिल से है उपरी दिखावे से क्या लाभ  !
-साधारण क्यों !खूब जोर -शोर से कीजिए।किस बात की कमी है-- और फिर ---चंदन बाबू अपने पीछे चंदन सी फुलवारी छोड़ गये हैं  -एक बुजुर्ग महाशय भड़क उठे।

किसी का ध्यान उस झाड़ी की ओर न गया जो चंद दिनों में ही बदरंग हो गई थी ।

तेरहवीं के बाद श्यामा अपने भाई से मिलने दिल्ली गई। वहाँ काफी लोग मिलने आये या उसकी उजड़ी मांग का जायजा लेने आये --पता नहीं----। पर वहाँ भी कुछ के  चेहरे   नाराजगी से पुते हुए थे।

- पता ही नहीं  चला -तेरहवीं कब हो गई  । हम तो तुम्हारे पास  आने को बैठे थे।
-समय  कम था --पत्र तो लिखे नहीं जा सके। लेकिन नाते -रिश्तेदारों को ई .मेल करके और फ़ोन से खबर कर दी ्थी। हो सकता है किसी -किसी को सूचना न मिल पाई हो ।
-अजी आपके बेटे तो बहुत समझदार हैं ।यह गलती तो नहीं होनी चाहिए ----थी।
-इस बार माफ कीजिये। अगली बार आपको शिकायत का मौका नहीं दिया जायेगा । मैं बैकुंठ -धाम जल्दी ही जाऊंगी।


सन्नाटे की रेखाएं खिच गईं ------- शायद---शायद श्यामा को माफी मिल गई थी ।

* * * * *

23 टिप्‍पणियां:

  1. मौन दर्द की घुटन से परे ये लोग ! .... मैंने श्यामा को गले से लगाया है - श्यामा तुम्हारे दर्द में मैं हूँ , कभी जब दिल न लगे मुझसे बातें करना -

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  2. शोक को भी लोग आमंत्रित करने वाला अवसर समझते है. दुःख बांटने के लिए उलाहना नहीं दिया जाता. जो साथ होता है वो सब तरह से साथ होता है.

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  3. रश्मि जी
    मेरी श्यामा को राहत मिली -कोई तो है जो कंटीली राह पर उसका मददगार होगा।

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  4. आत्मीय भावों के समाज के अनुसार बदलते रूप,गंभीर चिंतन को बाध्य करती हुई रचना ....

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  5. मृत्यु जैसी घटना भी व्यापार व व्यवहार-बुद्धि से परे नही है । इससे बडी विडम्बना क्या होगी । यह रचना इस तथ्य को कठोरता से प्रस्तुत कर रही है ।

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  6. झूठी सहानुभूती पर करारा कटाक्ष करती लघुकथा।

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  7. इस बार माफ कीजिये। अगली बार आपको शिकायत का मौका नहीं दिया जायेगा । मैं बैकुंठ -धाम जल्दी ही जाऊंगी।

    सब कुछ कह दिया ... ऐसी घडी में भी लोंग उलाहना देने से बाज़ नहीं आते ... सोचने को बाध्य करती लघु कथा

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  8. सुधा जी, आपकी श्‍यामा शायद कहना चाहती है कि 'उजड़ी मांग का जायजा लेने आए थे।' शायद गलती से जायका शब्‍द आ गया है।
    *
    बहरहाल लघुकथा अपने उद्देश्‍य को प्राप्‍त करती है। इस तरह के सवालों के जवाब ऐसे ही देने होंगे।

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  9. उत्साही जी
    धन्यवाद!
    शब्द ठीक कर दिया गया है। आगे भी सहयोग बनाये रखिये।
    सुधा भार्गव

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  10. क्या कहा जाय...यही समाज है.

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  11. अच्छी और सादगी से कही गयी कथा।

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  12. सच्चाई बयाँ करती एक मार्मिक और मुकम्मल कथा. शुभकामनाएँ. आभार !

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  13. पञ्च...ओह क्या कहूँ....

    लघु कलेवर में विद्रूपता,विसंगति पर कठोर प्रहार किया है आपने...

    लाजवाब लघुकथा...

    अनुसरण कर लिया है आपके ब्लॉग का अब नियमित पढ़ते रहने का सुअवसर मिलेगा...

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  14. मित्रवर
    आपके विचारों व भावनाओं की रो्शनी में मेरा मार्ग प्रशस्त हुआ। आपके सुझावों का हार्दिक स्वागत है ।
    साभार
    सुधा भार्गव

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  15. हम येसे समाज से और क्या उम्मीद कर् सकते हैं....

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  16. आपकी लघुकथा ने मेरे अतीत का पन्ना खोल के रख दिया
    सब कुछ मानस पर वैसे ही अंकित था जैसे आपने लिखा
    बहुत बेदर्द है ये समाज ...इनकी शिकायते कभी खत्म नहीं हुई और ना ही होंगी
    आज ही आपका ब्लॉग ज्वाइन किया ...ख़ुशी के साथ ...एक दर्द उभरा
    अब आना होता रहेगा आपके यहाँ ....आभार.........

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  17. सामाजिक व्यवस्था पर कटाक्ष ...!!
    होता ऐसा ही है ...!!

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  18. रश्मि दी के परिचय से यहाँ तक पहुंची हूँ ...
    अच्छा लगा आपका परिचय पाकर ...
    आपका ब्लॉग भी ज्वाइन कर लिया है ...

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  19. आज आपको और आपके बारे में जानने का अवसर रश्‍मी जी के ब्‍लॉग पर मिला यूं लगा कब से परिचित हूं आपसे ...यह आपका व्‍यक्तित्‍व है या उनकी लेखनी का जादू कुछ समझ नहीं पाई और यह लघुकथा एक सच की बानगी है...आभार सहित शुभकामनाएं आपके लेखन के लिये ।

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