बुधवार, 25 सितंबर 2013

अंतर्जाल पत्रिका में प्रकाशित


लघुकथा डॉट कॉम पर भी मेरी  लघुकथा छोटी बहू पढ़ सकते हैं ।
http://laghukatha.com/565-1.html

छोटी बहू








बेटी की विदाइगी के समय आकाश की रुलाई फूट पड़ी और सुबकते हुए अपने समधी जी से बोला --भाई साहब ,मेरी बेटी  को सब आता है पर खाना बनाना नहीं आता है । 
समधी बने मनोहर लाल ने सहजता से कहा -कोई बात नहीं --आपने सब सिखा दिया ,खाना बनाना हम सिखा देंगे । 
सरस्वती के पुजारी समधी जी आज फूले नहीं समा रहे थे घर में पढी -लिखी बहू जो आ गई थी ।  जो भी मिलता कहते -भई ,पाँच -पाँच बेटियाँ विदा करने के बाद घर में एक सुघड़ बेटी आई है ।

 शाम का समय था कमरे मेँ बिछे कालीन पर एक चौकी रखी थी जिस पर चाय -नाश्ता सलीके से सजा था । नन्द -देवर अपनी भाभी  को घेरे बैठे थे और इंतजार मेँ थे कि कब घर की बड़ी बहू आए औए चाय पीना शुरू हो । 
कुछ मिनट बीते कि  जिठानी जी  धम्म से कालीन पर आकर बैठ गईं और बोली -हे राम ,मैं तो बूरी तरह थक गई ,मुझसे कोई  उठने को न कहना । और हाँ छोटी बहू  !मुझे एक कप चाय बना दो और तुम लोग भी शुरू करो । 
चाय केआर घूँटभरने शुरू भी नहीं हुये थे कि छोटे बेटे को ढूंढते हुये ससुर जी उस कमरे मेँ आ गए और बोले -रामकृष्ण तो यहाँ नहीं आया ?
 बड़ी बहू  ने जल्दी से सिर पर पल्ला डाल घूँघट काढ़ लिया । छोटी  बहू तुरंत खड़ी हो गई और एक कुर्सी खींचते हुये बोली -बाबू जी आप जरा बैठिए  मैं आपके लिए चाय बनाती हूँ । भैया जी तो यहाँ नहीं आए । 
-न बहू ,मैं जरा जल्दी मेँ हूँ । चाय रहने दे । 
फिर बड़ी बहू से बोले -इंदा ,मैं चाहता हूँ अब से तुम भी पर्दा न करो ,नई बहू आजकल के जमाने की है । अब कोई पर्दा -सर्दा नहीं करता । 
-पहले जब मैं पर्दा नहीं करना चाहती थी तब मुझसे पर्दा कराया गया ,अब आदत पड गई तो कहा जा रहा है कि पर्दा न करो । अब तो मैं पर्दा करूंगी । 
नई नवेली बहू आश्चर्य से जिठानी जी की तरफ देख रही थी --यह कैसा पर्दा !बड़ों के प्रति जरा भी शिष्टता या आदर भावना नहीं !
मनोहर लाल जी बड़ी बहू के रवैये से खिन्न हो उठे । उसने नई दुल्हन का भी लिहाज न किया । अपना सा मुँह लेकर चले गए । 

उनके जाते ही एक वृद्धाने कमरे मेँ प्रवेश किया । 
--यहाँ कोई आया था ?जासूस की तरह पूछा । 
-हाँ !बाबू जी आए थे । जिठानी जी ने कहा । 
-बात कर रहे थे ?
-हाँ --बाबा जी मम्मी से कुछ कह रहे थे और चाची जी से भी बातें की थीं । चाची जी से तो बात करना सबको अच्छा लगता है । हमको भी अच्छा लगता है । वे हैं ही बहुत प्यारी  -प्यारी। ऐसा कहकर  बच्चे ने छोटी बहू का हाथ चूम लिया । 
-छोटी बहू ,अभी तुम नई -नई हो । ससुर से बात करना ठीक नहीं ।भौं टेढ़ी करते हुये वृद्धा बोली । 
- यदि  मुझसे कोई बात पूछे ,उसका भी जबाव न दूँ ?-----यह तो बड़ी अशिष्टता होगी !
दूसरे ही क्षण मेहमानों से भरे घर मेँ हर जुबान पर एक ही बात थी ---
छोटी बहू बड़ी तेज और जबानदराज है । 

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सोमवार, 2 सितंबर 2013

अविराम साहित्यिकी त्रैमासिक पत्रिका में प्रकाशित लघुकथा


माँ /सुधा भार्गव 














-बेटा ,एक ही बिल्डिंग में आमने- सामने के फ्लैट में हम लोग रहते हैं मगर मिले मुद्दत हो गई ।
-मुद्दत --!कमाल करती हो माँ !तीन दिन पहले ही तो आया था ।
-तीन दिन ही सही ,हमारे लिए तो तीन युगों के बराबर हैं ।
-क्या बताऊँ --!दफ्तर में बहुत काम था । देर से घर आया । आते ही बच्चे चिपट गए । दो घंटे खाना- खिलाना ,हंसी -ठट्ठा चलता रहा ।
-यह तो अच्छी बात है , तुम बच्चों को इतना प्यार करते हो ,आफिस में भी याद करते होगे । पर एक बात भूल जाते हो --हम भी अपने बच्चे के आने की राह तकते हैं । तुम्हारी शक्ल अपने सामने चाहते हैं ,उसे छू कर बात करना चाहते हैं । लेकिन तुम ---तुम्हारी तो नजरे ही नहीं उठतीं हमारी ओर --बात करना तो दूर । फोन से ही एक बार पूछ लेते --पापा कैसे हो ?
उनकी तरफ मुड़ते हुए उसने पूछा --- आप कैसे हो ?
पापा देख नहीं सकते थे पर कानों में बेटे की आवाज पड़ते ही लगा जैसे निर्जन वन में ठंडी फुआरें पड़ रही हों |
-पापा ,माँ मेरी बात नहीं समझ पातीं पर आप तो समझ सकते हैं --
मैं अकेली जान कहाँ -कहाँ जाऊं--। बच्चों को देखूँ कि बीबी को देखूँ --यहाँ आऊँ या आफिस जाऊं।
बेटे के मुख पर परेशानी की लकीरें देख माँ हिल उठी मानो उसके अंग अंग की धज्जियाँ उड़ रही हों ।
--मेरा तो बुढ़ापा है ,शायद बेटा ,-- सठिया गई हूँ । न जाने क्या -क्या कह गई । कहे सुने को यहीं दफन कर दे ।

एक हाथ से उसने कलेजा थाम रखा था और दूसरा हाथ था वृद्ध के कंधे पर ।
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