शुक्रवार, 22 फ़रवरी 2013

लघुकथा



बंदर का तमाशासुधा भार्गव 





सड़क पर एक  औरत बंदर का तमाशा दिखा रही थी । मैले कुचैले ,फटे फटाए कपड़ों से किसी तरह तन को ढके हुये थी ।  बंदर की कमर में रस्सी बंधी थी जिसका एक छोर उस औरत ने पकड़ रखा था । झटके दे –देकर कह रही थी –कुकड़े ,माई –बाप और अपने भाई –बहनों को सलाम कर और कड़क तमाशा दिखा तभी तो तेरा –मेरा पेट भरेगा । 

बंदर भी औरत के कहे अनुसार मूक अभिनय कर पूरी तरह झुककर सलाम ठोकने की कोशिश कर रहा था ।

-अच्छा –अब ठुमक –ठुमक कर नाच दिखा --।मैं गाती हूँ। 
औरत ने गाना शुरू किया –

अरे छोड़  छाड़  के अपने
सलीम की गली --
अनारकली डिस्को चली ।

बंदर ने बेतहाशा हाथ पैर फेंकने कमर –कूल्हे मटकाने शुरू किए,उसे डिस्को जो करना था । थक कर जमीन पर बैठ गया तो तालियों ने उसका स्वागत किया ।
तमाशा देखने वालों की भीड़ उमड़ पड़ी थी । लोग हंस हंस कर कह रहे थे –पैसा फेंको –तमाशा देखो ।
और वह बंदर -- बंदर नहीं था बल्कि बंदर का तमाशा दिखाने वाली उस गरीब औरत का दो वर्षीय नंग –धड़ंगा बेटा था । 

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