वेदना-संवेदना के बीहड़ जंगलों को पार करती हुई बड़ी खामोशी से तूलिका सृजन पथ पर अग्रसर हो अपनी छाप छोड़ती चली जाती है जो मूक होते हुए भी बहुत कुछ कहती है । उसकी यह झंकार कभी शब्दों में ढलती है तो कभी लघुकथा का रूप लेती है । लघुकथा पलभर को ऐसा झकझोर कर रख देती है कि शुरू हो जाता है मानस मंथन।

गुरुवार, 19 जून 2014

लघुकथा


बेड़ियों की जकड़न  /सुधा भार्गव

तिरुपति  मंदिर
-पंद्रह  सालों  से  बेड़ियों  में  जकड़ा  हुआ  है  वह। 
-क्यों ?
-मानसिक  विक्षिप्त  है I बुढ़ापे  में  सहारा  बनने  की  बजाय पिता  पर  बोझ  बन  गया  है  हरियाI
-इलाज  तो कराया  होगा I
-हाँ, उधार  लेकर।   अब  बूढ़ा  बाप मटकी  बनाकर  हजार  आस  लिए बाजार  जाता  है और  सस्ते  में  बेचकर  लौटता हैI  कभी -कभी  तो  लागत का  खर्चा  भी  नहीं  निकल  पाता।                                  अनुदान  देने  वाला  कोई  माई  का  लाल नहीं  मिला
 -कुछ ना  पूछो! सहायता  पाने  को भागते-भागते  एड़ियाँ घिस  गईं।     सरकारी  सहायता  मिली  न किसी  धन्ना  सेठ  का  दिल  पिघला। 
  -सुना  है  तुम  तिरुपति  बाला  जी  जा  रहे होI
-हाँ, बीस  तोले  सोना  मंदिर  में दान  की  झोली  में  डालना है I
-बीस  तोले सोना! भगवान्  क्या  करेंगे  उसकाI  हरिया  के  नाम  बैंक  में  क्यों  नहीं  जमा  कर  देते।  ब्याज  से  उसका  इलाज  हो  जायेगाI  गरीब  का  भी  भला , तुम्हारा  भी  भलाI
-मेरा  क्या  भला  होगा  ,जरा  मैं  भी  तो  सुनूँI
-गरीब की  दुआ  का सात  जन्मों  तक  असर होता  है। उसकी  झोंपड़ी  में  ही  तो  ईश्वर  का  निवास  हैI
-तुम्हारा  ईश्वर  रहता  होगा  झोंपड़ी  में, मेरा  तो  मंदिर  में रहता  है  वह  भी  बड़ी  शान  से। 

आकाश  निरुपाय  था I बेड़ियों  में  जकड़ी  जिन्दगी  तो  उसे  अपने  दोस्त  की  भी लगी जो लोहे से  भी  अधिक मजबूत  थी।   


बुधवार, 11 जून 2014

लघुकथा

अन्न देवता /सुधा भार्गव  




दीनानाथ  बेटे की शादी करके फूले नहीं समा रहे थे। खुशियाँ उनसे संभाले नहीं सँभल रही थीं । दहेज में उम्मीदों से बहुत चढ़बढ़कर बेटी के बाप ने उसकी सुख –सुविधाओं को ध्यान रखते हुए एक सुंदर सा फ्लैट और सैर सपाटे  को नीली कार दे दी थी ।

दीनानाथ सोचने लगे –अब तो समाज में मेरा ओहदा बढ़ गया है। विवाह भोज मुझे अपनी नई औकात के अनुसार ही देना होगा ।उन्होंने औकात वालों  को ही प्रेम से आमंत्रित किया । ठीक समय पर बड़ी बड़ी कारों से रंग बिरंगे परिधानों से सुसज्जित जोड़े उतरने लगे । हाथों में चमकीले पेपर में लिपटे उपहारों के बड़े --बड़े पैकिट थामे हुए थे। वर -बधू को आशीर्वाद देते हुए उपहारों से मुक्ति पाई और  शीघ्र ही स्वादिष्ट भोजन का जायका लेने चल दिए । कुछ इस आशंका से भी ग्रस्त दिखाई दे रहे थे कि देरी से पहुँचने पर खाना ही कम न पड़ जाए। बल्बों की रोशनी में मेजों की सफेद चादरें  झिलमिला रही थीं और इनके ऊपर बिछी थी पत्तलें । हर मेज पर खातिरदारी करने को दो सेवक तैनात थे।  लोग इतने अच्छे इंतजाम को देख बड़े खुश !

बड़ी नजाकत से लोग बैठने लगे । पर कुर्सी पर पसरते ही  उनकी नजाकत न जाने कहाँ गुम हो गई। भोजन करना शुरू हुआ तो रुकने का नाम नही ले रहा था । पेट में नमकीन –मिठाई  की कई परतें लग चुकी थीं पर पत्तलों में परोसने वाले दै दनादन कचौरी रसगुल्ले डाले जा रहे थे। मालिक का हुकुम था कोई भरपूर पेट पूजा किए बिना घर न जाने पाए जिससे वे तीन चार दिन तो इस भोज को याद रखे ।खाने वाले भी मना करने से हिचकिचाते। पेट भरने से क्या होता है नियत तो नहीं भरी थी।अगर उनका वश चलता तो अपने साथ बांधकर ले जाते । इक्का –दुक्का ही इसके अपवाद थे जो सोच -समझकर ले रहे थे और पत्तल सफाचट्ट करके जाना चाहते थे। विनायक बाबू उन्हीं में से एक थे जो अपने सात वर्षीय बेटे और धर्मपत्नी के साथ आए हुए थे।
उनका बेटा बोला –माँ –माँ एक रसगुल्ला और।

-हाँ –हाँ ,एक नहीं दो दिलवा देती हूँ ।  
पास से रसगुल्ले का भगोना लिए आदमी गुजरा ।
-सुनो ,मेरे कन्हैया को दो रसगुल्ले तो दे दो और हाँ मेरी पत्तल में भी डाल दो। माँ ने गुहार लगाई।
बच्चे ने एक रसगुल्ला खाया और नाक भौं सकोड़ने लगा।  
-क्या हुआ ?माँ का दिल धुकधुक करने लगा।
-अब नहीं खाया जाता ।
-छोड़ दे –छोड़ दे ,कहीं पेट में दर्द न हो जाए ।
वात्सल्य रस की धारा में बाधा डालते पास बैठे पति महोदय अचानक बोल उठे-जब तू खा नहीं सकता था तो दो क्यों लिए  फिर भौं टेढ़ी करके अपनी पत्नी की ओर उन्मुख हुए -तुम भी एक हो –उसने मांगा एक और तुमने डलवा दिए दो । झूठन छोडने से क्या फायदा । घर में तो हमेशा नारे बाजी करती रहती हो –जूठा छोडना अन्न देवता का अपमान करना है । एक –एक दाने पर नजर रखती हो । यहाँ तुम्हारी सोच कैसे बदल गई ?

पत्नी ने इधर –उधर नजर घुमाई और फिर पति को घूरती बोली –उफ !जरा धीरे बोलो । हर जगह उपदेश झाड़ते रहते हो। घर की बात कुछ और होती है बाहर की कुछ और । 

(लघुकथा संकलन संरचना अंक 7,2014 में प्रकाशित )

सोमवार, 12 मई 2014

बड़े ज़ोर –शोर से मनाए जाने वाले मातृ दिवस पर


मेरी दो लघुकथाएँ /सुधा भार्गव 


1-हैपी मदर्स डे 

बेटा तीन साल के बाद पढ़ाई करके विदेश से लौटने वाला था । उसने लौटने का दिन हैपी मदर्स डे चुना। वह इस दिन पहुँचकर माँ को चौंका देना चाहता था। आते ही माँ के पैर छुए और बोला माँ –हैपी मदर्स डे।
-हैपी मदरस डे !यह क्या होता है ।
-आज के दिन पूरी दुनिया में हैप्पी मदर्स डे मनाया जा रहा है । लोग अपनी माँ को याद करते हैं। उससे मिलने जाते हैं। उसका विशेष आदर कर तोफे देते हैं। देखो मैं मिलने आ गया और तेरे लिए कीमती तोफा भी लाया हूँ ।
-बस –बस—बहुत हो गया गौरव गान! क्या साल के 365 दिनों में केवल एक दिन को ही तेरी माँ रहती हूँ ?

2-याद न रहा

माँ –बेटे उस छोटे से घर में बड़े आराम से रहा करते पर बेटे की शादी के बाद वह घर छोटा पड़ने लगा । फिर एक बच्चा भी हो गया । पत्नी जिद करने लगी कि किराए पर एक दूसरा फ्लैट पास में ही ले लो ।
-क्या बात करती हो !दुनिया क्या कहेगी ! इसके अलावा मैं भी तो माँ से अलग नहीं रह सकता ।
-आप तो बच्चों की तरह बातें करते हो। मैं भी तो अपने माँ-बाप को छोडकर आपके पास रह रही हूँ । अच्छा ऐसा करो –अपना ट्रांसफर दूसरी जगह करा लो ।तब तो किसी को कुछ कहने का मौका ही नहीं मिलेगा और हमारी ज़िंदगी भी खूबसूरत मोड़ ले लेगी ।
-तुमने ठीक कहा। माँ को भी अपने साथ ले चलेंगे । वह भी नया शहर देख लेगी । पिताजी के मरने के बाद वह इस छोटे से घर से निकली भी नहीं हैं ।
-अभी तो हम खयाली पुलाब ही बना रहे हैं । ट्रांसफर लेकर पहले जम तो जाओ फिर माँ जी को बुलाने की सोचना ।

ट्रांसफर आर्डर हाथ में आते ही बेटा उछल पड़ा –माँ –माँ देखो मेरा ट्रांसफर ऑर्डर । मैं बड़े से शहर में  जा रहा हूँ ।तुझे  भी अपने साथ ले जाऊंगा । मिल मिलकर खूब घूमेंगे । वहाँ मेरी तरक्की होने का मौका भी हैं । 
-बेटा ,भगवान तुझे खूब तरक्की दे। पर मैं तेरे साथ न जा सकूँगी । तेरे पिता ने बड़े शौक से इस घर को बनवाया था । मुझे इससे मोह हो गया है । हाँ बीच –बीच में मिलने जरूर पहुँचूँगी। 

बेटा मन मारकर दूसरे शहर चल दिया पर अगले हफ्ते ही रविवार को माँ के पास आन धमका ।
माँ हैरान ! -बेटा यहाँ तू कैसे । तुझे तो नई जगह में बहुत काम होगा ।
-हाँ माँ बहुत काम है और काम के चक्कर में मैंने तुझे बहुत भूलाने की कोशिश की। सब याद रहा पर तुझे भूलना ही याद न रहा।

सोमवार, 14 अप्रैल 2014

गणेश पुराण/सुधा भार्गव 








-बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स की आज मीटिंग है। उनका अगले वर्ष के लिए चुनाव होगा । तुम्हें  भी मीटिंग में चलना है ।
-मैं क्या करूंगी ?
-तुम्हारा वोट बहुत कीमती है। इमरजेंसी में इसका प्रयोग होगा । मेरे विपक्षी को हराने के  काम आएगा।
-आपका विपक्षी कौन है?
-वही मेरा सौतेला जानी दुश्मन ।
-गोद देने से क्या सौतेला हो गया । कुछ करने से पहले अच्छी तरह सोच लो वरना जानलेवा जख्म जीना मुश्किल कर देंगे । फिर मुझे भाई –भाई के झगड़े में क्यों खचेड़ते हो । मेरे चचेरी बहन उनको ब्याही है । हमने हमेशा अपने को सगी बहने समझा । मेरा यह रिश्ता सदैव को चटक जाएगा । फिर क्या जुड़न हो पाएगी । मैं कैसे आई दरार को पाट पाऊँगी । दुनिया क्या कहेगी ?

-तुमने मेरी बात नहीं मानी तो मैं नाराज हो जाऊँगा। मगर तुम ऐसा करोगी नहीं। तुम मेरी अर्धांगिनी हो ,गृह लक्ष्मी हो । यदि मैं जीत गया तो फैक्ट्री का मालिक बन जाऊंगा । दुश्मन के बदले जिसे डायरेक्टर बनाऊँगा ,वह तो मेरी उँगलियों पर नाचेगा। 
-वह गुलाम कौन है ?
-तुम्हारा भाई ! दो साल की ही तो बात है तुम्हारा बेटा पढ़कर आ जाएगा । फिर उसे तुम्हारे भाईजान के बदले डायरेक्टर बना दूंगा। पूरी फैक्टरी पर मालिकाना मेरा हक होगा। बाहरवालों को एक –एक करके आउट कर दूंगा। उनके शेयर्स ज्यादा दाम देकर खरीद लूँगा ।
-आपका इन बातों में बड़ा दिमाग चलता है ।

-सच्चे व्यापारी को दूरदर्शी ,समझदार होना चाहिए गणेश की तरह ।
-वह कैसे ?
-हाथी की सूंढ की तरह सूंघकर व्यापारी को दूर से ही भाँप लेना चाहिए ,खतरा तो आसपास नहीं मँडरा रहा है। हाथी की निगाहों की तरह नजर में पैनापन हो । इससे सूक्ष्म से सूक्ष्म कोना भी छिपा न रहेगा । उस की ही तरह कान बड़े -खड़े और पेट मोटा होना चाहिए ताकि खुद तो जरा सी खुसर –पुसर भी सुन ले लेकिन अपने भेद पेट में इस प्रकार छिपाए रखे कि दूसरों को उसकी थाह भी न मिले । और बताऊँ ---दिमाग इतना तेज हो कि दूसरों के मन की  बात उगलवा ले । चालें ऐसी आड़ी-तिरछी चले कि बहुत से विभीषण,जयचंद उससे आकर मिल जाएँ । भाई, मैं तो इन्हीं राहों का मुसाफिर हूँ?
-बंद कीजिए अपना गणेश पुराण ।

-हाँ ,वोट देने के साथ –साथ मेरे वैरी के खिलाफ बोलोगी भी । उसे अपमानित करके अपने मन की भड़ास निकाल लूँगा ।
-यह मुझसे नहीं होगा ।
-बस एक बार मेरी बात मान लो फिर जीवनभर तुम्हारे चरणों में पड़ा रहूँगा । विष्णु भगवान के लक्ष्मी पैर दबाती है पर मैं आजीवन तुम्हारे दबाऊंगा और लक्ष्मी पुराण पढ़ता रहूँगा ।  

प्रकाशित -संरचना लघुकथा विशेषांक 2010


रविवार, 9 मार्च 2014

दक्षिण भारत राष्ट्रमत में प्रकाशित -9.3 .2014

मेरी दो लघुकथाएँ /सुधा भार्गव



1-चुनौती

पिता की बड़ी इच्छा थी कि बेटी खूब पढे–लिखे और विदेश जाये। बेटी ने उच्च शिक्षा तो प्राप्त कर ली मगर विदेश न जा पाई। संयोग से विदेश में रहने वाला लड़का मिल गया और शादी के बाद वह  विदेश चली गई।
शीघ्र ही लाड़ली बेटी सुंदर से बेटे की माँ बन गई। खुशियाँ दरवाजे पर दस्तक दे रही थीं पर बेटी ने अनुभव किया, पति बदल रहा है। बाहर कुछ ज्यादा ही समय देने लगा है ।  
उस रात वह अनमनी सी पति के आने का इंतजार कर रही थी। पति आया पर बेमन से बोला सोई नहीं ?
-सोती कैसे आपके बिना !
-आदत डाल लो बिना मेरे सोने की। ज्यादा चुप रहकर तुम्हें और धोखा नहीं देना चाहता। मेरी  पहले से ही एक विदेशी महिला से शादी हो चुकी है। दो बच्चों का बाप हूँ। मैं तो शादी करना ही नहीं चाहता था, पर मेरे माँ-बाप को तो वारिस चाहिए था, वह भी भारतीय बहू से। उनको उनका वारिस मिल चुका है। मेरी  तरफ से तुम आजाद हो। कहीं भी रहो, कहीं भी जाओ ।
-अच्छा हुआ बता दिया। धोखा तो तुम दे ही चुके हो, पर मैं तुम्हें धोखे में नहीं रखूंगी। मैं एक वकील हूँ और एक वकील से तुम उसकी औलाद नहीं छीन सकोगे, यह मेरी चुनौती है।

2-द्रौपदी तो नहीं!
बुआ जी बहुत दिनों बाद आई थीं। सारा घर उन्हें घेरे बैठा था। अपनी दोनों भतीजियों को वहां न देख पूछ बैठीं
-अरे मुरली, तेरी दोनों बेटियाँ कहाँ हैं ?
-आती ही होंगी जिज्जी!…लो आ गईं ।
आते ही दोनों ने बुआजी को प्रणाम किया। वे जूडो-कर्राटे  सीख रही थीं। अगले दिन परीक्षा होने वाली थी। बिना समय नष्ट किये उन्होंने जल्दी-जल्दी नींबू शरबत पीया और लग गईं पैतरेबाजी में।
दो मिनट तो बुआ जी उन्हें देखती रहीं। सामने का दृश्य असहनीय होने पर वह चिल्लाईँ --छोरियों चोट लग जायेगीये क्या कर रही हो, ईंटा-पत्थर से
दूसरे पल और जोर से चिल्लाईं -हे भगवान् इन्होंने तो ईंट टूक-टूक कर दीअरे मुरलीये छोरियां हैं या प्रेतात्माएँ। गजब की ताकत है इनके हाथों में। इनसे शादी कौन करेगा?
-अभी तो ये छोटी हैं जिज्जी, सो चिंता नहीं करो।
-चिंता! चिंता क्यों न करूं। इनके लच्छन ठीक नहीं। जहाँ भी जायेंगी, महाभारत मचायेंगी।
-महाभारत ही तो मचायेंगी, द्रौपदी तो नहीं बनेंगी।