वेदना-संवेदना के बीहड़ जंगलों को पार करती हुई बड़ी खामोशी से तूलिका सृजन पथ पर अग्रसर हो अपनी छाप छोड़ती चली जाती है जो मूक होते हुए भी बहुत कुछ कहती है । उसकी यह झंकार कभी शब्दों में ढलती है तो कभी लघुकथा का रूप लेती है । लघुकथा पलभर को ऐसा झकझोर कर रख देती है कि शुरू हो जाता है मानस मंथन।

बुधवार, 28 जुलाई 2010

लघुकथा

असली  व्यापारी /सुधा  भार्गव  -
 
  






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-भैया जी ,
इस  अंगूठी  पर  पालिश 
करा  दो और  चूड़ियाँ  भी  दिखा  दो I
--बहन  जी  ,आराम  से  बैठो ---देखो  और  बताओ  क्या  लोगे -चाय  या  ठंडा I
--बस  एक  कप   चाय I

--अरे  सोटू ,कारीगर  को  ये  दे  आ - - - -बहन  जी  की  अंगूठी
  है I इस  पर  पालिश  होनी  है  Iऔर  कहना - - हीरे  की  मजबूती भी  परख  ले I
बस  जी  दस  मिनट  में  आती  है   आप  तो  चूड़ियाँ  पसंद  कीजिए - - - ये  पंजाबी  तर्ज  की  हैं  ,यह  बंगाली  चूड़ा  है ,ये  नर्गिसी   कंगन  हैं I
 मशहूर  ज्वैलर अपने  ग्राहक  से  बोला I

--बस - - - बस  और  मत  निकालोI
--अरे  दिखाऊंगा नहीं  तो  आप 
पसंद  कैसे  करेंगी !
--ये  मीने  की  चूड़ियाँ  दे  दीजिये  I बात -बात  में  आधा घंटा  हो  गया  पर  अंगूठी  नहीं 
आई I
--बस  दस  मिनट  और  - - - इत
ने  मैं  आपका  बिल   बनाये  देता  हूं I

सोटू  अंगूठी  लेकर  आया  I
हीरे  की  अंगूठी  सच  में  चमचम  कर  रही  थी Iबहन  जी  ने  एक  हाथ  में  मीने  की  चूड़ियाँ  पहनी  और  दूसरे  में  अंगूठी  I इठलाती -बाल खातीं  कार  में  जा  बैठीं I
--एक  हफ्ते  ही  में  हीरा  धूमिल  लगने  लगा  I दुर्भाग्य  से दूसरे  हफ्ते  छिटक  कर  वह  जमीन  पर  जा  पड़ा  I पास  ही  की  दुकान  पर  अंगूठी  ले  जाने  से  पता  लगा  हीरा  तो  नकली  है I

--बहन  जी  का  तो  दिमाग  घूम  गया  I इसलिए  नहीं  कि करोड़   की लागत का  हीरा कुछ  हजार  का  निकला  बल्कि  इसलिए कि  पिछले  २५ वर्षों से  वह  परिवार  का ज्वैलर  रहा  ,जिस  पर  अटूट  विश्वास ,उसने  तो  न  जाने  कहाँ -कहाँ  सेंध  लगाई होगी I
बहन  जी यह  चोट  सहन  न  कर  पाईं  I अगले  दिन  ज्वैलर  की  दुकान  में  दनदनाती  घुसीं और ग्राहकों  के  बीच  ज्वालामुखी  सी  फूट  पड़ीं I

--हमारे  साथ  इतना  बड़ा  धोखा - - - असली  की  जगह नकली  हीरा !जबकि  वह  तुम्हारी  ही  दुकान  का  था I Iपचास  हजार  का  लिया  था I अब  तो  उसका  दाम  करोड़  होगा  I तुम्हें  ऐसा  नहीं  करना  चाहिए  था I

--शांत  होइये  बहन जी --- !क्या  करना  चाहिए  क्या  नहीं  - - -मुझे  इतनी  समझ  है I आपने   ठीक  फरमाया  मेरी दुकान  से ही यह  पचास  हजार में  खरीदा  गया  था I आज  इसकी  कीमत  बदल  गयी  है I  इसीकारण  तो  मैंने  उसे  बदल  दिया  और  पचास  हजार  का  दूसरा  लगा  दिया I
--तुमने  ऐसा  क्यों  किया  ?
--क्योंकि  मैं  एक  व्यापारी  हूं I  व्यापार  में  घाटा नहीं  सह  सकता I मेरा  तो  काम  ही  चार  से  चालीस  बनाना  है वरना   व्यापारी  किस  बात  का I  एक  करोड़  का  हीरा  कैसे  गँवा  सकता  था  लक्ष्मी जी  तो  मेरे  पास  चल  कर  आई  थीं I
व्यापारिक छैनी से ज्वैलर  ने विश्वास  के  पर  काट  दिये  थे   और  वह  खून  से  लथपथ औंधे  मुँह   जमीन  पर  पड़ा  सिसक  रहा  था I

(छवियाँ -गूगल  से  साभार)

बुधवार, 14 जुलाई 2010

लघुकथा-सार्थकता

सार्थकता  / सुधा  भार्गव






साहित्यिक  विधा ' लघुकथा ' पर  सेमिनार  हुई I दूर -दूर से  बुद्धिजीवी  पधारे I वक्तव्य  देने  के  लिए  भी और सुनने  के  लिए  भी I भाषणों  का  सिलसिला  शुरू  हुआ जो  रुकने  का  नाम  ही   न  लेता  था  | शब्दों  को  तोड़मरोड़ कर एक  ही  बात  कई बार  दोहराई  गयी |
                                                                                                   सुनने  वाले  जम्हाइयां  लेने   लगे  Iअध्यक्ष  महोदय  अपना  सिर  खुजलाने  लगे I   सब्र  का बाँध  टूटा  तो  उठ  खड़े  हुए  i बोले --
सत्य  ही ,लघुकथा कम  शब्दों  में  गंभीरता  से  चोट  करते  हुए  यथार्थ  को  मुखरित  करती  है I
उन्होंने  दूसरों  की  कही   बात  एक  बार  और  दोहरा दी  I

एक  श्रोता  खीजकर  बोला --
''काश  वक्तव्य  का  कलेवर  भी  लघु  होता  और  कलेजे  में  होता गहन -गंभीर  स्पंदन  - - - तभी  सेमिनार  सार्थक  होती  I  
  

लघुकथा

व्यथा पुंज /सुधा भार्गव











-रोनी सी सूरत क्यों बना रखी है !

-बच्चा समान वह नाजुक सा नई-नई कोंपलों वाला पौधा कल तक तो यहीं था आज गायब है| मेरे बुजुर्गों में से तो चाहे जब कोई गायब हो जाता है | अपनों का बिछोह अब सहन नहीं |

-तुम्हारे हरे -भरे संसार की सुरक्षा की तो पूरी व्यवस्था लगती है |

-जिनके ह्रदय में कंटीली झाड़ियाँ उग आई हैं उनके लए सब कुछ संभव है | अफसर बाहर छुट्टी पर गया है | लौटेगा तो पता लगाएगा किसने किया - - - |
तब तक तो मैं भी रहूँ या न रहूँ - - - - हिचकियाँ बंध गईं उस व्यथा पुंज की |

दिन के उजाले में भी मेरी आँखों के सामने अँधेरा छा गया |ठंडी हवा शरीर को जलाने लगी |शायद उसके दुःख की आंधी का असर था कि मैं डगमगाया - -,सुदर्शन सा वृक्ष डगमगाया - - - फिर हर कोई |
लेकिन तनकर कोई सामने नहीं आया जिससे काटने वाले की कुल्हाड़ी पर कुल्हाड़ा चल सके |